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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 13
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - आपो देवताः छन्दः - निचृत् आर्षी अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
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    देवी॑रापः शु॒द्धा वो॑ढ्व॒ꣳ सुप॑रिविष्टा दे॒वषु॒ सुप॑रिविष्टा व॒यं प॑रि॒वे॒ष्टारो॑ भूयास्म॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    देवीः॑। आ॒पः॒। शु॒द्धाः। वो॒ढ्व॒म्। सुप॑रिविष्टा॒ इति॑ सुऽप॑रिविष्टाः॒। दे॒वेषु॑। सुप॑रिविष्टा॒ इति॒ सुऽप॑रिविष्टाः॒। व॒यम्। प॒रि॒वे॒ष्टार॒ इति॑ परिऽवे॒ष्टारः॑। भू॒या॒स्म॒ ॥१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवीरापः शुद्धा वोढ्वँ सुपरिविष्टा देवेषु सुपरिविष्टा वयम्परिवेष्टारो भूयास्म ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवीः। आपः। शुद्धाः। वोढ्वम्। सुपरिविष्टा इति सुऽपरिविष्टाः। देवेषु। सुपरिविष्टा इति सुऽपरिविष्टाः। वयम्। परिवेष्टार इति परिऽवेष्टारः। भूयास्म॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 13
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    पदार्थ -

    दिव्य जीवन बनाने के लिए माता-पिता आचार्यों से प्रार्थना करते हैं कि १. ( देवीः ) =  ज्ञान की ज्योति से चमकनेवाले ( आपः ) = रेतस् के पुञ्ज [ आपः रेतस् ] अथवा आप्त ( शुद्धाः ) = शुद्ध मनोवृत्तिवाले आचार्यो! ( वोड्ढ्वम् ) = [ ‘वह’ प्रापणे = ‘नी’ उपनयन ] आप इन विद्यार्थियों को अपने समीप लाइए, उनका उपनयन कीजिए। वेद के आचार्य उपनयनमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः इन शब्दों के अनुसार उन्हें अपने गर्भ में धारण कीजिए। माता जैसे गर्भस्थ बालक की रक्षा करती है आप उसी प्रकार इन विद्यार्थियों के सदाचार आदि की रक्षा कीजिए। 

    २. ये विद्यार्थी ( सुपरिविष्टाः ) = सुपरिविष्ट हों, अर्थात् इन्हें आपके द्वारा ज्ञान का भोजन उत्तमता से परोसा जाए। ‘ब्रह्मचर्य’ शब्द में भी ज्ञान के भक्षण की भावना है। 

    ३. ( देवेषु ) = विद्वान् आचार्यों के समीप ( सुपरिविष्टाः ) = खूब उत्तमता से परोसे हुए ज्ञान को, अर्थात् आचार्यों के समीप रहकर सब प्राकृतिक देवों से सम्बन्धित ज्ञान को प्राप्त करनेवाले ( वयम् ) = हम ( परिवेष्टारः ) = इस ज्ञान के भोजन के परोसनेवाले ( भूयास्म ) = बनें। ज्ञान प्राप्त करके उस ज्ञान को औरों तक पहुँचानेवाले बनें।

    भावार्थ -

    भावार्थ — राष्ट्र में आचार्य दिव्य ज्योतिवाले, शक्तिसम्पन्न व शुद्ध वृत्तिवाले हों। इनके समीप रहकर विद्यार्थी ज्ञान का भोजन प्राप्त करें और स्वयं ज्ञान प्राप्त करके उस ज्ञान का सर्वत्र प्रसार करनेवाले हों।

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