Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 8
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - बृहस्पतिर्देवता छन्दः - प्राजापत्या अनुष्टुप्,भूरिक् प्राजापत्या बृहती, स्वरः - ऋषभः
    4

    रेव॑ती॒ रम॑ध्वं॒ बृह॑स्पते धा॒रया॒ वसू॑नि। ऋ॒तस्य॑ त्वा देवहविः॒ पाशे॑न प्रति॑मुञ्चामि॒ धर्षा॒ मानु॑षः॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रेव॑तीः। रम॑ध्वम्। बृह॑स्पते। धा॒रय॑। वसू॑नि। ऋ॒तस्य॑। त्वा॒। दे॒व॒ह॒वि॒रिति॑ देवऽहविः। पाशे॑न। प्रति॑। मु॒ञ्चा॒मि॒। धर्ष॑। मानु॑षः ॥८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रेवती रमध्वं बृहस्पते धारया वसूनि । ऋतस्य त्वा देवहविः पाशेन प्रति मुञ्चामि धर्षा मानुषः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    रेवतीः। रमध्वम्। बृहस्पते। धारय। वसूनि। ऋतस्य। त्वा। देवहविरिति देवऽहविः। पाशेन। प्रति। मुञ्चामि। धर्ष। मानुषः॥८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    पदार्थ -

    १. पिछले मन्त्र के आश्रम-प्रकरण को ही कहते हुए प्रार्थना करते हैं कि १. ( रेवतीः ) = हे गौवो! तुम इस आश्रम में ( रमध्वम् ) = रमण करो। आश्रम की उत्तमता के लिए वहाँ गौवों का होना नितान्त आवश्यक है। [ वाग् वै रेवती—श० ३।८।१।१२ ] गौवों के होने पर वहाँ ज्ञान की वाणियाँ भी रमण करती हैं। इतना ही नहीं [ रेवत्यः सर्वाः देवताः—ऐ० २।१६ ] गौवों के कारण आश्रम में सब देवों का वास होता है। लोगों की वृत्तियाँ दिव्य बनती हैं। 

    २. हे ( बृहस्पते ) = ब्रह्मणस्पते = वेदवाणी के पति आचार्य! आप आश्रमवासियों में ( वसूनि धारय ) = उत्तम निवास के कारणभूत ज्ञानों को धारण कीजिए [ वसन्ति सुखेन यत्र तद्विज्ञानम् वसु—द० ]। आचार्य को इस प्रकार ज्ञान का प्रसार करना है कि उस ज्ञान के प्रसार से लोगों का ऐहिक जीवन उत्तम बने। वे इस संसार को सचमुच निवास के योग्य बना पाएँ। 

    ३. यह बृहस्पति ( देवहविः ) = देवताओं के लिए देकर यज्ञशेष को खानेवाला है। प्रभु वेद द्वारा इस बृहस्पति को कहते हैं कि ( त्वा ) = तुझे ( ऋतस्य पाशेन ) = ऋत के पाश से ( प्रतिमुञ्चामि ) = बाँधता हूँ। तेरा जीवन बहुत ही नियमित हो, ऋत से जकड़ा हुआ हो, क्योंकि आश्रम में सभी ने इसी के अनुकरण में अपना जीवन चलाना है। 

    ४. ( धर्षा ) = तू वासनाओं का धर्षण करनेवाला बन। कोई भी वासना व प्रलोभन तुझे ऋत के मार्ग से विचलित न करे। 

    ५. ( मानुषः ) = तू मानवमात्र का हित करनेवाला हो। 

    ६. इस प्रकार यह बृहस्पति अपने जीवन से तम को दूर भगाकर औरों के तम के भी विदारण में लगा है, अतः ‘दीर्घतमाः’ इस सार्थक नामवाला है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम अपने जीवन को ऋत के पाश से प्रतिबद्ध करें। हम वासनाओं का धर्षण करनेवाले हों और हमारा प्रत्येक कर्म मानवहित-साधक हो।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top