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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 24
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - लिङ्गोक्ता देवताः छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप्,त्रिपाद गायत्री, स्वरः - धैवतः, षड्जः
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    अ॒ग्नेर्वोऽप॑न्नगृहस्य॒ सद॑सि सादयामीन्द्रा॒ग्न्योर्भा॑ग॒धेयी॑ स्थ मि॒त्रावरु॑णयोर्भाग॒धेयी॑ स्थ॒ विश्वे॑षां दे॒वानां॑ भाग॒धेयी॑ स्थ। अ॒मूर्याऽउप॒ सूर्ये॒ याभि॒॑र्वा॒ सूर्यः॑ स॒ह। ता नो॑ हिन्वन्त्वध्व॒रम्॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नेः। वः। अप॑न्नगृह॒स्येत्यप॑न्नऽगृहस्य। सद॑सि। सा॒द॒या॒मि॒। इ॒न्द्रा॒ग्न्योः। भा॒ग॒धेयी॒रिति॑ भाग॒ऽधेयीः॑। स्थ॒। मि॒त्रावरु॑णयोः। भा॒ग॒धेयी॒रिति॑ भाग॒ऽधेयीः॑। विश्वे॑षाम्। दे॒वाना॑म्। भा॒ग॒धेयी॒रिति॑ भाग॒ऽधेयीः॑। स्थ॒। अ॒मूः। याः। उप॑। सूर्य्ये॑। याभिः॑। वा॒। सूर्य्यः॑। स॒ह। ताः। नः। हि॒न्व॒न्तु॒। अ॒ध्व॒रम् ॥२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नेर्वापन्नगृहस्य सदसि सादयामीइन्द्राग्न्योर्भागधेयी स्थ मित्रावरुण्योर्भागधेयी स्थ विश्वेषान्देवानाम्भागधेयी स्थ । अमूर्याऽउप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह । ता नो हिन्वन्त्वध्वरम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नेः। वः। अपन्नगृहस्येत्यपन्नऽगृहस्य। सदसि। सादयामि। इन्द्राग्न्योः। भागधेयीरिति भागऽधेयीः। स्थ। मित्रावरुणयोः। भागधेयीरिति भागऽधेयीः। विश्वेषाम्। देवानाम्। भागधेयीरिति भागऽधेयीः। स्थ। अमूः। याः। उप। सूर्य्ये। याभिः। वा। सूर्य्यः। सह। ताः। नः। हिन्वन्तु। अध्वरम्॥२४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 24
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    पदार्थ -

    १. पिछले मन्त्र में प्रजाओं के हविष्मान् बनने का उल्लेख था। ‘हमारी सन्तानें हविष्मान् ही बनी रहें’ इस उद्देश्य से प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि हम उनके विवाहादि सम्बन्धों को ऐसे घरों में करें जहाँ अग्निहोत्र इत्यादि नियमपूर्वक होते हों। घर का वातावरण यज्ञ के अनुकूल होगा तो सन्तानें भी उसी प्रवृत्तिवाली बनी रहेंगी। कन्या का पिता कन्या से कहता है कि ( वः ) = तुम्हें ( अपन्नगृहस्य ) = [ न पन्नं पतितं गृहं यस्य ] यज्ञादि उत्तम कर्मों के त्याग से पतित नहीं हुआ है जिसका घर, उस ( अग्नेः ) = प्रगतिशील व्यक्ति के ( सदसि ) = घर में ( सादयामि ) = स्थापित करता हूँ। 

    २. तुम इस उत्तम घर में स्थित होकर ( इन्द्राग्न्योः ) = इन्द्र और अग्नि के ( भागधेयी स्थ ) = भाग को धारण करनेवाले बनो। तुममें इन्द्र और अग्नि दोनों देवों का अंश स्थापित हो। ‘इन्द्र’ बल का प्रतीक है तो ‘अग्नि’ प्रकाश का। तुम बल और प्रकाशवाले होवो। 

    ३. ( मित्रावरुणयोः ) = मित्र और वरुण के ( भागधेयी स्थ ) = भाग को धारण करनेवाले बनो। ‘मित्र और वरुण’ इन दोनों देवों का अंश तुममें स्थापित हो। तुम मित्र के अंश को धारण करके सबके साथ स्नेह करनेवाले बनो और वरुण के अंश को धारण करके तुम द्वेष का निवारण करनेवाले होओ। तुम किसी से भी द्वेष न करो। 

    ४. ठीक-ठीक बात तो यह है कि तुम ( विश्वेषाम् ) = सब ( देवानाम् ) = देवों के ( भागधेयी स्थ ) = भाग को धारण करनेवाले बनो। तुममें सब दिव्य गुणों की वृद्धि हो। यद्यपि इस वाक्य में ‘इन्द्र-अग्नि और मित्र-वरुण’ का भी समावेश है तो भी ‘ब्राह्मणा आयाता वसिष्ठोऽप्यायातः’— ‘ब्राह्मण आ गये, वसिष्ठ भी आ गये’ जैसे इस वाक्य में ब्राह्मणों के अन्तर्गत होते हुए भी अधिक आदरणीय होने से वसिष्ठ का अलग उल्लेख है, उसी प्रकार यहाँ ‘इन्द्राग्नी और मित्र-वरुण’ का अलग उल्लेख हुआ है। 

    ५. ( अमूः ) = हमारी वे प्रजाएँ—सन्तानें ( याः ) = जो ( उपसूर्ये ) = ज्ञान के सूर्य आचार्य के समीप रही हैं ( वा ) = और ( याभिः सह ) = जिनके साथ ( सूर्यः ) =  ज्ञान का सूर्य आचार्य रहा है, अर्थात् आचार्य के समीप रहने से जो सचमुच ‘अन्तेवासी’ इस नाम से कहलाने योग्य थीं और आचार्य ने भी जिन्हें मानो अपने गर्भ में धारण किया हुआ था, ( नः ) = हमारी ( ताः ) = वे सन्तानें ( अध्वरम् ) = हिंसारहित यज्ञादि कर्मों को ( हिन्वन्तु ) = [ प्रीणन्तु =  बढ़ावें—द० ] अपने घरों में बढ़ानेवाली [ प्रेरित करनेवाली ] हों।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हमारे घरों में यज्ञों का कभी लोप न हो, हमारी सन्तानें सब देवांशों को धारण करनेवाली हों। विशेषतया उनमें ‘बल, प्रकाश, स्नेह व द्वेषाभाव’ तो अवश्य ही हों।

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