यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 16
ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः
देवता - बृहस्पतिर्देवता
छन्दः - भूरिक पङ्क्ति,
स्वरः - पञ्चमः
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शन्नो॑ भवन्तु वा॒जिनो॒ हवे॑षु दे॒वता॑ता मि॒तद्र॑वः स्व॒र्काः। ज॒म्भय॒न्तोऽहिं॒ वृक॒ꣳ रक्षा॑सि॒ सने॑म्य॒स्मद्यु॑यव॒न्नमी॑वाः॥१६॥
स्वर सहित पद पाठशम्। नः॒। भ॒व॒न्तु॒। वा॒जिनः॑। हवे॑षु। दे॒वता॒तेति॑ दे॒वऽताता॑। मि॒तद्र॑व॒ इति॑ मि॒तऽद्र॑वः। स्व॒र्का इति॑ सुऽअ॒र्काः। ज॒म्भय॑न्तः। अहि॑म्। वृक॑म्। रक्षा॑सि। सने॑मि। अ॒स्मत्। यु॒य॒व॒न्। अमी॑वाः ॥१६॥
स्वर रहित मन्त्र
शन्नो भवन्तु वाजिनो हवेषु देवताता मितद्रवः स्वर्काः । जम्भयन्तो हिँ वृकँ रक्षाँसि सनेम्यस्मद्युयवन्नमीवाः ॥
स्वर रहित पद पाठ
शम्। नः। भवन्तु। वाजिनः। हवेषु। देवतातेति देवऽताता। मितद्रव इति मितऽद्रवः। स्वर्का इति सुऽअर्काः। जम्भयन्तः। अहिम्। वृकम्। रक्षासि। सनेमि। अस्मत्। युयवन्। अमीवाः॥१६॥
विषय - ‘अहि-वृक-रक्षस्’ जम्भन
पदार्थ -
१. ‘राष्ट्रपति की अध्यक्षता में काम करनेवाले राजपुरुष कैसे हों’, इस बात का वर्णन करते हुए कहते हैं कि १. ( वाजिनः ) = ये शक्तिशाली राजपुरुष ( हवेषु ) = हमारी प्रार्थनाओं पर [ पुकारों पर ] ( नः ) = हमारे लिए ( शम् ) = शान्ति व सुख प्राप्त करानेवाले ( भवन्तु ) = हों।
२. ( देवताताः ) = [ देवान् तन्वन्ति इति ] वे राजपुरुष दिव्य गुणों का विस्तार करनेवाले हों।
३. ( मितद्रवः ) = ये नपी-तुली गतिवाले हों, प्रत्येक कर्म में युक्तचेष्ट हों।
४. ( स्वर्काः ) = [ सु अर्च् ] ये प्रभु के उत्तम उपासक हों। ज्ञानी ही तो सर्वोत्तम उपासक है, अतः ये ज्ञानी बनें और प्रभु की उपासना करनेवाले हों।
५. ये राष्ट्र में ( अहिम् ) = सर्प के समान कुटिल गति को ( वृकम् ) = भेड़िये के समान अत्यधिक खाने की वृत्ति को तथा ( रक्षांसि ) = अपने रमण के लिए औरों का क्षय करने की वृत्ति को ( जम्भयन्तः ) = [ नाशयन्तः—म० ] नष्ट करते हुए ६. ( सनेमि ) = शीघ्र ही [ सनेमि = क्षिप्रम्—म० ] ( अस्मत् ) = हमसे ( अमीवाः ) = रोगों व व्याधियों को ( युयवन् ) = दूर करें।
७. राज्य की व्यवस्था ऐसी सुन्दर होनी चाहिए कि उसमें धूर्तता, कुटिलता, ठगी [ अहि ], लोभ व उदरम्भरिता [ वृक ] तथा औरों की हानि करके मौज मारने की वृत्ति [ रक्षस् ] का नितान्त अभाव हो और लोग व्याधियों के शिकार न हों।
भावार्थ -
भावार्थ — राज्य वही ठीक है १. जिसमें ‘अहि, वृक व रक्षसों’ का अभाव है। २. जिसमें लोग स्वस्थ हैं। ३. और जिसमें लोगों की चित्तवृत्ति शान्त है। इस व्यवस्था को लाने के लिए राष्ट्रपुरुष वे होने चाहिएँ जो शक्तिशाली, दिव्य गुणों का विस्तार करनेवाले, नपी-तुली गतिवाले तथा उत्तम उपासक हैं।
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