यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 36
ये दे॒वाऽअ॒ग्निने॑त्राः पुरः॒सद॒स्तेभ्यः॒ स्वाहा॒ ये दे॒वा य॒मने॑त्रा दक्षिणा॒सद॒स्तेभ्यः॒ स्वाहा॒ ये दे॒वा वि॒श्वदे॑वनेत्राः पश्चा॒त्सद॒स्तेभ्यः॒ स्वाहा॒ ये दे॒वा मि॒त्रावरु॑णनेत्रा वा म॒रुन्ने॑त्रा वोत्तरा॒सद॒स्तेभ्यः॒ स्वाहा॒ ये दे॒वाः सोम॑नेत्राऽउपरि॒सदो॒ दुव॑स्वन्त॒स्तेभ्यः॒ स्वाहा॑॥३६॥
स्वर सहित पद पाठये। दे॒वाः। अग्निने॑त्रा॒ इत्य॑ग्निऽने॑त्राः। पु॒रः॒सद॒ इति॑ पु॒रः॒ऽसदः॑। तेभ्यः॑। स्वाहा॑। ये। दे॒वाः। य॒मने॑त्रा॒ इति॑ य॒मऽने॑त्राः। द॒क्षि॒णा॒सद॒ इति॑ दक्षिणा॒ऽसदः॑। तेभ्यः॑। स्वाहा॑। ये। दे॒वाः। वि॒श्वदे॑वनेत्रा॒ इति॑ वि॒श्वदे॑वऽनेत्राः। प॒श्चात्सद॒ इति॑ पश्चा॒त्ऽसदः॑। तेभ्यः॑। स्वाहा॑। ये। दे॒वाः। मि॒त्रावरु॑णनेत्रा॒ इति॑ मि॒त्रावरु॑णऽनेत्राः। वा॒। म॒रुन्ने॑त्रा॒ इति॑ म॒रुत्ऽने॑त्राः। वा॒। उ॒त्त॒रा॒सद॒ इत्यु॑त्तरा॒ऽसदः॑। तेभ्यः॑। स्वाहा॑। ये। दे॒वाः। सोम॑नेत्रा॒ इति सोम॑ऽनेत्राः। उ॒प॒रि॒सद॒ इत्यु॑परि॒ऽसदः॑। दुव॑स्वन्तः। तेभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥३६॥
स्वर रहित मन्त्र
ये देवाऽअग्निनेत्राः पुरःसदस्तेभ्यः स्वाहा ये देवा यमनेत्रा दक्षिणासदस्तेभ्यः स्वाहा ये देवा विश्वदेवनेत्राः पश्चात्सदस्तेभ्यः स्वाहा ये देवा मित्रावरुणनेत्रा वा मरुन्नेत्रा वोत्तरासदस्तेभ्यः स्वाहा ये देवाः सोमनेत्रा ऽउपरिसदो दुवस्वन्तस्तेभ्यः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
ये। देवाः। अग्निनेत्रा इत्यग्निऽनेत्राः। पुरःसद इति पुरःऽसदः। तेभ्यः। स्वाहा। ये। देवाः। यमनेत्रा इति यमऽनेत्राः। दक्षिणासद इति दक्षिणाऽसदः। तेभ्यः। स्वाहा। ये। देवाः। विश्वदेवनेत्रा इति विश्वदेवऽनेत्राः। पश्चात्सद इति पश्चात्ऽसदः। तेभ्यः। स्वाहा। ये। देवाः। मित्रावरुणनेत्रा इति मित्रावरुणऽनेत्राः। वा। मरुन्नेत्रा इति मरुत्ऽनेत्राः। वा। उत्तरासद इत्युत्तराऽसदः। तेभ्यः। स्वाहा। ये। देवाः। सोमनेत्रा इति सोमऽनेत्राः। उपरिसद इत्युपरिऽसदः। दुवस्वन्तः। तेभ्यः। स्वाहा॥३६॥
विषय - राष्ट्र सञ्चालक देव
पदार्थ -
१. ( ये देवाः ) = जो राष्ट्र के व्यवहार के चलानेवाले मन्त्री ( अग्निनेत्राः ) = राष्ट्र को आगे और आगे ले-चलने के दृष्टिकोणवाले हैं, ( पुरःसदः ) = जो राजा के पूर्व की दिशा में स्थित होते हैं ( तेभ्यः ) = उनके लिए ( स्वाहा ) = हम उत्तम शब्द कहते हैं अथवा हम [ स्व+हा = ] अपने कर-भाग को देते हैं। इसी कर द्वारा प्राप्त आय से ही तो वे राष्ट्रोन्नति की सब योजनाएँ बना सकेंगे। एवं, स्पष्ट है कि राजा ने सबसे पूर्व योजना-मन्त्रियों [ Planning Commission ] की स्थापना करनी है। ‘प्राची’ [ पूर्व ] में इनका स्थान इसलिए है कि यह दिशा ‘प्र-अञ्च = आगे बढ़ने का संकेत करती है और इन्हें सदा अपने कार्य का स्मरण कराती है।
२. ( ये देवाः ) = जो देव ( यमनेत्राः ) = राष्ट्र में नियन्त्रण-स्थापना की दृष्टिवाले हैं ( दक्षिणासदः ) = दक्षिण दिशा में जिनका स्थान है ( तेभ्यः स्वाहा ) = उनके लिए भी हम ( स्वाहा ) = शुभ बोलते हुए अपने नियत कर-भाग को देते हैं। ये मन्त्री व कार्यसचिव राष्ट्र को सुव्यवस्थित करते हुए लोगों की कार्यकुशलता व दाक्षिण्य को बढ़ाते हैं। ‘दक्षिण’ दिशा इन्हें अपने कार्य का स्मरण कराती रहती है।
३. ( ये देवाः ) = जो राष्ट्र को ज्ञान की ज्योति से दीप्त करनेवाले ( विश्वदेवनेत्राः ) = सभी को ज्ञानी व दिव्य गुणोंवाले बनाने के दृष्टिकोणवाले हैं और ( पश्चात् सदः ) = पश्चिम की ओर बैठे हैं, जिन्हें यह प्रतीची [ पश्चिम ] दिशा [ प्रति-अञ्च् ] विषय-व्यावृत्त होने का संकेत दे रही है, ( तेभ्यः ) = उन देवों के लिए ( स्वाहा ) = शुभ शब्द बोलते हुए हम अपना कर-भाग देते हैं।
४. ( ये देवाः ) = जो देव राष्ट्र में सब रोगों को जीतने की कामनावाले हैं [ दिव् विजिगीषा ] अतएव ( मित्रावरुणनेत्राः ) = प्राणापान की वृद्धि के दृष्टिकोणवाले हैं अथवा मित्रता व द्वेष-निवारण के दृष्टिकोणवाले हैं ( वा ) = अथवा ( मरुत् नेत्राः ) = सब प्राणशक्तियों को बढ़ाने के दृष्टिकोण को अपनाये हुए हैं और ( उत्तरासदः ) = उत्तर दिशा में स्थित हुए सदा स्मरण करते हैं कि हमें राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति को नीरोग बनाते हुए ऊपर और ऊपर उठने की क्षमतावाला बनाना है, ( तेभ्यः स्वाहा ) = उनके लिए हम शुभ शब्द बोलते हैं और अपना कर-भाग देते हैं।
५. ( ये देवाः ) = जो देवता—‘दैवी सम्पत्ति’ को प्राप्त व्यक्ति ( सोमनेत्राः ) = सौम्यता के दृष्टिकोणवाले हैं, निरभिमानता को प्रचरित करनेवाले हैं, ( उपरिसदः ) = राजशासन से भी ऊपर है, जिनका शासन प्रभु द्वारा ही हो रहा है ( दुवस्वन्तः ) = जो बहुत प्रकार के धर्म के सेवन से युक्त हैं, ( तेभ्यः ) = उन जितेन्द्रिय देवों के लिए भी ( स्वाहा ) = हम शुभ शब्द बोलते हैं और अपना कर-भाग देते हैं।
६. इन उल्लिखित पाँचों सचिवों की सलाह के अनुसार राजा ने राष्ट्र में कार्यों को करना है। इन देवों से प्रेरणा प्राप्त करने से राजा ‘देववात’ कहलाता है।
भावार्थ -
भावार्थ — राष्ट्र में राजा ने मन्त्रियों के मन्त्र के अनुसार ही कार्य करना है। राजा स्वच्छन्द नहीं है। सब मन्त्रिवर्ग भी ब्रह्मनिष्ठ लोगों के उपदेशों से सदा सौम्य व निरभिमान बने रहते हैं।
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