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  • यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 19
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - निचृत् धृति, स्वरः - ऋषभः
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    आ मा॒ वाज॑स्य प्रस॒वो ज॑गम्या॒देमे द्यावा॑पृथि॒वी वि॒श्वरू॑पे। आ मा॑ गन्तां पि॒तरा॑ मा॒तरा॒ चा मा॒ सोमो॑ऽअमृत॒त्त्वेन॑ गम्यात्। वाजि॑नो वाजजितो॒ वाज॑ꣳ ससृ॒वासो॒ बृह॒स्पते॑र्भा॒गमव॑जिघ्रत निमृजा॒नाः॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। मा॒। वाज॑स्य। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वः। ज॒ग॒म्या॒त्। आ। इ॒मेऽइती॒मे। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। वि॒श्वरू॑पे॒ऽइति॑ वि॒श्वऽरू॑पे। आ। मा॒। ग॒न्ता॒म्। पि॒तरा॑मा॒तरा॑। च॒। आ। मा॒। सोमः॑। अ॒मृ॒त॒त्वेनेत्य॑मृ॒तऽत्वेन॑। ग॒म्या॒त्। वाजि॑नः। वा॒ज॒जित॒ इति॑ वाजऽजितः। वाज॑म्। स॒सृ॒वास॒ इति॑ ससृ॒वासः॑। बृह॒स्पतेः॑। भा॒गम्। अव॑। जि॒घ्र॒त॒। नि॒मृ॒जा॒ना इति॑ निऽमृजा॒नाः ॥१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ मा वाजस्य प्रसवो जगम्यादेमे द्यावापृथिवी विश्वरूपे । आ मा गन्ताम्पितरा मातरा चा मा सोमो ऽअमृतत्वेन गम्यात् । वाजिनो वाजजितो वाजँ ससृवाँसो बृहस्पतेर्भागमव जिघ्रत निमृजानाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। मा। वाजस्य। प्रसव इति प्रऽसवः। जगम्यात्। आ। इमेऽइतीमे। द्यावापृथिवीऽइति द्यावापृथिवी। विश्वरूपेऽइति विश्वऽरूपे। आ। मा। गन्ताम्। पितरामातरा। च। आ। मा। सोमः। अमृतत्वेनेत्यमृतऽत्वेन। गम्यात्। वाजिनः। वाजजित इति वाजऽजितः। वाजम्। ससृवास इति ससृवासः। बृहस्पतेः। भागम्। अव। जिघ्रत। निमृजाना इति निऽमृजानाः॥१९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 9; मन्त्र » 19
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    पदार्थ -

    राष्ट्र में राजा तथा सारे प्रजाजन धर्माचरण द्वारा यही कामना करें कि— १. ( मा ) = मुझे ( वाजस्य ) = ज्ञान व शक्ति का ( प्रसवः ) = ऐश्वर्य ( अजगम्यात् ) = सब प्रकार से प्राप्त हो। 

    २. मुझे ( इमे ) = ये ( विश्वरूपे ) = पूर्णरूपवाले न कि अधूरे ( द्यावापृथिवी ) = मस्तिष्क व शरीर ( आ ) = प्राप्त हों। ज्ञान के ऐश्वर्य के परिणामस्वरूप मेरा मस्तिष्क पूर्ण विकासवाला तथा शक्ति के ऐश्वर्य के परिणामरूप मेरा शरीर नीरोग व पूर्ण होगा। ज्ञान मस्तिष्क की अपूर्णता को दूर करेगा तो शक्ति शरीर की अपूर्णता को। 

    ३. ( मा ) = मुझे ( पितरा मातरा ) = सच्चे अर्थों में माता और पिता ( आगन्ताम् ) = प्राप्त हों। मेरे माता व पिता प्रशस्त हों, विद्यायुक्त होते हुए वे मेरे जीवन का सुन्दर निर्माण करनेवाले हों। 

    ४. ( च ) = और ( मा ) = मुझे ( सोमः ) = सोम [ = वीर्य ] ( अमृतत्वेन ) = नीरोगता के साथ ( आगम्यात् ) = प्राप्त हो। मैं सोम की रक्षा करनेवाला बनूँ और इस प्रकार नीरोग होऊँ। [ ५ ] उल्लिखित प्रार्थना को सुनकर प्रभु कहते हैं कि [ क ] ( वाजिनः ) = शक्तिशाली व ज्ञानी होते हुए ( वाजजितः ) = तुम संग्रामों को जीतनेवाले बनो। काम- क्रोधादि शत्रुओं से तुम्हें पराजित नहीं होना है। [ ख ] ( वाजं ससृवांसः ) = शक्ति की ओर चलनेवाले तुम ( बृहस्पतेः ) = ब्रह्मणस्पति परमात्मा की ( भागम् ) = भजनीय वेदवाणी को ( अवजिघ्रत ) =  अवश्य ग्रहण करो। ज्ञान की गन्ध से शून्य शक्ति राक्षसी व हानिकर हो जाती है। [ ग ] ज्ञान व शक्ति प्राप्त करके तुम ( निमृजानाः ) = निश्चय से अपना शोधन करनेवाले बनो।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम शक्तिशाली व ज्ञानी बनें। शरीर व मस्तिष्क को पूर्ण करें। उत्तम माता-पितावाले हों। सोम-रक्षा द्वारा नीरोग बनें। शक्ति की ओर चलनेवाले हम ज्ञान की गन्ध का भी ग्रहण करें और इस प्रकार अपने जीवन को शुद्ध बनाएँ।

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