यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 36
ऋषिः - देवा ऋषयः
देवता - रसविद्विद्वान् देवता
छन्दः - आर्ष्युनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
1
पयः॑ पृथि॒व्यां पय॒ऽओष॑धीषु॒ पयो॑ दि॒व्यन्तरि॑क्षे॒ पयो॑ धाः। पय॑स्वतीः प्र॒दिशः॑ सन्तु॒ मह्य॑म्॥३६॥
स्वर सहित पद पाठपयः॑। पृ॒थि॒व्याम्। पयः॑। ओष॑धीषु। पयः॑। दि॒वि। अ॒न्तरि॑क्षे। पयः॑। धाः॒। पय॑स्वतीः। प्र॒दिश॒ इति॑ प्र॒ऽदिशः॑। स॒न्तु॒। मह्य॑म् ॥३६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पयः पृथिव्याम्पय ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः । पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
पयः। पृथिव्याम्। पयः। ओषधीषु। पयः। दिवि। अन्तरिक्षे। पयः। धाः। पयस्वतीः। प्रदिश इति प्रऽदिशः। सन्तु। मह्यम्॥३६॥
विषय - ऐश्वर्यवृद्धि के लिये राजा से प्रार्थना ।
भावार्थ -
हे (अग्ने) अग्ने ! सूर्य ! तेजस्विन् ! परमेश्वर ! विद्वन् ! तू ( पृथिव्याम् ) पृथिवी में ( ओषधीषु ) ओषधियों में (दिवि ) धोलोक, आकाश या सूर्यप्रकाश में और ( अन्तरिक्षे ) अन्तरिक्ष, वायु या जल में ( पयः ) पुष्टिकारक रस और जल को ( धाः ) स्थापित कर । ( प्रदिशः ) समस्त दिशाएं (मह्यम् ) मेरे लिये ( पयस्वती: ) पुष्टिकारक रस से पूर्ण (सन्तु) हों ।विद्वान् पृथिवी ओषधि, सूर्य और वायु में से रस या सार बल को ग्रहण करें । राजा, प्रजाजन समस्त दिशाओं से अन्न आदि ग्रहण करें ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋष्यादि पूर्ववत् । अनुष्टुप् ।
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