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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 39
    ऋषिः - देवा ऋषयः देवता - सूर्यो देवता छन्दः - भुरिगार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    स॒ꣳहि॒तो वि॒श्वसा॑मा॒ सूर्यो॑ गन्ध॒र्वस्तस्य॒ मरी॑चयोऽप्स॒रस॑ऽआ॒युवो॒ नाम॑। स न॑ऽइ॒दं ब्रह्म॑ क्ष॒त्रं पा॑तु॒ तस्मै॒ स्वाहा॒ वाट् ताभ्यः॒ स्वाहा॑॥३९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒ꣳहि॒त इति॑ सम्ऽहि॒तः। वि॒श्वसा॒मेति॑ वि॒श्वऽसा॑मा। सूर्यः॑। ग॒न्धर्वः॒। तस्य॑। मरी॑चयः। अ॒प्स॒रसः॑। आ॒युवः॑। नाम॑। सः। नः॒। इ॒दम्। ब्रह्म॑। क्ष॒त्रम्। पा॒तु॒। तस्मै॑। स्वाहा॑। वाट्। ताभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥३९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सँहितो विश्वसामा सूर्या गन्धर्वस्तस्य मरीचयो प्सरस आयुवो नाम । स नऽइदम्ब्रह्म क्षत्रम्पातु तस्मै स्वाहा वाट्ताभ्यः स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सꣳहित इति सम्ऽहितः। विश्वसामेति विश्वऽसामा। सूर्यः। गन्धर्वः। तस्य। मरीचयः। अप्सरसः। आयुवः। नाम। सः। नः। इदम्। ब्रह्म। क्षत्रम्। पातु। तस्मै। स्वाहा। वाट्। ताभ्यः। स्वाहा॥३९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 39
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    भावार्थ -
    ( सूर्य: ) सूर्य ( संहितः ) समस्त पृथिवी, जल आदि भूतों में किरणों से व्याप्त होकर उनको मिलाता तथा दिन और रात को सन्ध्या द्वारा मिलाता और ( विश्वसामा ) विश्व में समान रूप से व्यापक है, वह ( गन्धर्वः ) गौ, किरणों को धारण करता और पृथ्वी का पोषण करता है । उसी प्रकार विद्वान् राजा ( संहितः ) समस्त विद्वान् योग्य पुरुषों और शासकों और राज्यांगों को परस्पर मिलाता (विश्वसामा ) राज्य में सबके प्रति समान भाव से रहता है, वह ( गन्धर्वः ) पृथिवी को धारण करने में समर्थ 'सूर्य' कहाने योग्य है ( तस्य ) उसकी ( अप्सरसः ) ज्ञान और कर्म में कुशल प्रजाएं, जल के परमाणुओं में व्यापक ( मरीचयः ) सूर्य की किरणों के समान स्वयं अज्ञान या शत्रु- बल के नाश करने वाली सेनाएं ( आयुवः नाम ) परस्पर संगत, सुव्यवस्थित होकर रहने और युद्ध में जाने से 'आयु' नाम से कहाती हैं । (सः नः इदं० ) इत्यादि पूर्ववत् ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सूर्यो देवता । भुरिगार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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