यजुर्वेद - अध्याय 26/ मन्त्र 11
तं वो॑ द॒स्ममृ॑ती॒षहं॒ वसो॑र्मन्दा॒नमन्ध॑सः। अ॒भि व॒त्सं न स्वस॑रेषु धे॒नव॒ऽइन्द्रं॑ गी॒र्भिर्न॑वामहे॥११॥
स्वर सहित पद पाठतम्। वः॒। द॒स्मम्। ऋ॒ती॒षह॑म्। ऋ॒ति॒सह॒मित्यृति॒ऽसह॑म्। वसोः॑। म॒न्दा॒नम्। अन्ध॑सः। अ॒भि। व॒त्सम्। न। स्वस॑रेषु। धे॒नवः॑। इन्द्र॑म्। गी॒र्भिरिति॑ गी॒ऽभिः। न॒वा॒म॒हे॒ ॥११ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तँवो दस्ममृतीषहँवसोर्मन्दानमन्धसः । अभि वत्सन्न स्वसरेषु धेनवऽइन्द्रङ्गीर्भिर्नवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठ
तम्। वः। दस्मम्। ऋतीषहम्। ऋतिसहमित्यृतिऽसहम्। वसोः। मन्दानम्। अन्धसः। अभि। वत्सम्। न। स्वसरेषु। धेनवः। इन्द्रम्। गीर्भिरिति गीऽभिः। नवामहे॥११॥
विषय - उत्तम विद्वानों, नायकों और शासकों से भिन्न-भिन्न कार्यों की कामना ।
भावार्थ -
( स्वसरेषु ) दिनों के पूर्व भाग में ( धेनवः वत्सं न ) गौवें जिस प्रकार अति प्रेम से अपने बच्छे के प्रति हंभारती हैं उसी प्रकार हम भी (वत्सम् ) अभिवादन और स्तुति करने योग्य, ( दस्मम् ) दर्शनीय शत्रुओं के विनाशक, प्रियवादी और कार्यसाधक (बसोः) बसने वाले राष्ट्र और (अन्धसः) अन्नादि नाना भोग्य पदार्थ से ( मन्दानम् ) स्वयं और अन्यों को तृप्त, आनन्दित करने वाले ( ऋतिसहम् ) अपने ज्ञान, प्रयाण या चालों से शत्रुओं को परास्त करनेवाले, (इन्द्रम् ) इन्द्र, सेनापति और राजा को हम ( गीर्भिः ) स्तुतिवाणियों द्वारा ( अभि नवामहे ) साक्षात् स्तुति करें, उसका आदर करें।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - नोधा गोतम आदित्ययाज्ञवल्क्यौ वा ऋषी । इन्द्रो देवता । सतोबृहती । मध्यमः ॥
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