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  • यजुर्वेद - अध्याय 26/ मन्त्र 20
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - विद्वान् देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    अग्ने॒ पत्नी॑रि॒हा व॑ह दे॒वाना॑मुश॒तीरुप॑। त्वष्टा॑र॒ꣳ सोम॑पीतये॥२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑। पत्नीः॑। इ॒ह। आ। व॒ह॒। दे॒वाना॑म्। उ॒श॒तीः। उप॑। त्वष्टा॑रम्। सोम॑पीतय॒ इति॒ सोम॑ऽपीतये ॥२० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने पत्नीरिहा वह देवानामुशतीरुप । त्वष्टारँ सोमपीतये ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। पत्नीः। इह। आ। वह। देवानाम्। उशतीः। उप। त्वष्टारम्। सोमपीतय इति सोमऽपीतये॥२०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 26; मन्त्र » 20
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    भावार्थ -
    हे (अग्ने) अग्ने ! राजन् ! अग्रणी पुरुष ! (इह) इस परस्पर सुसंगत राष्ट्र और समाज के कार्य में ( देवानाम् ) विद्वान् पुरुषों की उन (पत्नी) स्त्रियों को जो (उशतीः) उत्तम कार्य करने की अभिलाषा करती हों (उप आ वह) प्राप्त करा, उनको भी इस कार्य में लगा और (सोम पीतये) सोम या राजपद के स्वीकार करने के लिये (त्वष्टारम्) शत्रुहन्ता, प्रजापालक पुरुष को भी (उप आ वह) प्राप्त करा । राष्ट्र के पालन के लिये राजा (देवानां पत्नीः) देवों विद्वानों और राजा और विजयी पुरुषों की पालन शक्तियों सेनाओं को एकत्र करे । सबके त्वष्टा, शिक्षक या भूमि आदि के मापने हारे राजप्रासाद, दुर्ग आदि के निर्माता शिल्पी को भी प्राप्त करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मेधातिथिर्ऋषिः । विद्वान् अग्निर्देवता । गायत्री । षड्जः ॥

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