यजुर्वेद - अध्याय 26/ मन्त्र 3
ऋषिः - गृत्समद ऋषिः
देवता - ईश्वरो देवता
छन्दः - भुरिगत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
1
बृह॑स्पते॒ऽअति॒ यद॒र्योऽअर्हा॑द् द्यु॒मद्वि॒भाति॒ क्रतु॑म॒ज्जने॑षु। यद्दी॒दय॒च्छव॑सऽ ऋतप्रजात॒ तद॒स्मासु॒ द्रवि॑णं धेहि चि॒त्रम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि॒ बृह॒स्पत॑ये त्वै॒ष ते॒ योनि॒र्बृह॒स्पत॑ये त्वा॥३॥
स्वर सहित पद पाठबृह॑स्पते। अति॑। यत्। अ॒र्यः। अर्हा॑त्। द्यु॒मदिति॑ द्यु॒ऽमत्। वि॒भातीति॑ वि॒ऽभाति॑। क्रतु॑म॒दिति॒ क्रतु॑ऽमत्। जने॑षु। यत्। दी॒दय॑त्। शव॑सा। ऋ॒त॒प्र॒जा॒तेत्यृ॑तऽप्रजात। तत्। अ॒स्मासु॑। द्रवि॑णम्। धे॒हि॒। चि॒त्रम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। बृह॒स्पत॑ये। त्वा॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। बृह॒स्पत॑ये। त्वा॒ ॥३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहस्पतेऽअति यदर्याऽअर्हाद्द्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु । यद्दीदयच्छवसऽऋतप्रजात तदस्मासु द्रविणन्धेहि चित्रम् । उपयामगृहीतोसि बृहस्पतये त्वैष ते योनिर्बृहस्पतये त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
बृहस्पते। अति। यत्। अर्यः। अर्हात्। द्युमदिति द्युऽमत्। विभातीति विऽभाति। क्रतुमदिति क्रतुऽमत्। जनेषु। यत्। दीदयत्। शवसा। ऋतप्रजातेत्यृतऽप्रजात। तत्। अस्मासु। द्रविणम्। धेहि। चित्रम्। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। बृहस्पतये। त्वा। एषः। ते। योनिः। बृहस्पतये। त्वा॥३॥
विषय - बृहस्पति पद पर योग्य पुरुष का रूप | पक्षान्तर में परमेश्वर का वर्णन ।
भावार्थ -
हे (बृहस्पते) बड़े बडों के पालक, उनके स्वामिन् ! उनमें प्रधान पुरुष ! ( यत् ) जिस कारण से तू (अर्य:) सबका स्वामी होकर ( अर्थात् ) पूजने योग्य है । और ( जनेषु) समस्त जनों में ( घुमत् ) सूर्य के समान तेजस्वी ( क्रतुमत् ) प्रज्ञावान् और क्रियावान् होकर (अति विभाति) सबसे अधिक चमकता है और ( यत् ) जिस प्रकार से हे (ऋतप्रजात) सत्य, व्यवहार धर्म और ज्ञान द्वारा प्रसिद्ध एवं उत्कृष्ट पद पर स्थित ! तू ( शवसा ) बल से ही ( दीदयत् ) सबकी रक्षा करता है अतः तू (अस्मासु) हम प्रजाजनों में ( चित्रम् ) संग्रह करने योग्य ( द्रविणम् ) ऐश्वर्यं का ( धेहि) प्रदान कर, धारण करा । हे विद्वान् पुरुष ! तू (उपयामगृहीतः असि) राष्ट्र के सुव्यवस्थित राजनियमों द्वारा स्वीकार किया गया है । (त्वा) तुझको (बृहस्पतये) बृहस्पति पद के लिये चुनते हैं । (एषः ते योनिः) यह तेरे योग्य आसन, पदाधिकार है । (बृहस्पतये त्वा) तुझे बृहस्पति पद के लिये नियुक्त करता हूँ ।
परमात्मा महान् लोकों और बृहती वेद वाणी और बृहती अर्थात् प्रकृति का स्वामी है । समस्त उत्पन्न उत्पन्न होने हारे पदार्थों में क्रियावान् और ज्ञानवान् है, वह सबसे पूज्य और प्रकाशमान है । हे 'ऋतप्रजात' व्यक्त जगत् के उत्पादक और स्वरूप से प्रसिद्ध है वह (उपयाम- गृहीतः ) यम नियमों और तप द्वारा योग से प्राप्त होता है, वही 'बृहस्पति' है।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समदो। बृहस्पतिर्वा ऋषिः । बृहस्पतिरीश्वरो देवता । भुरिगत्यष्टिः । गान्धारः ॥
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal