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  • यजुर्वेद - अध्याय 26/ मन्त्र 2
    ऋषिः - लौगाक्षिर्ऋषिः देवता - ईश्वरो देवता छन्दः - स्वराडत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः
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    यथे॒मां वाचं॑ कल्या॒णीमा॒वदा॑नि॒ जने॑भ्यः। ब्र॒ह्म॒रा॒ज॒न्याभ्या शूद्राय॒ चार्या॑य च॒ स्वाय॒ चार॑णाय च। प्रि॒यो दे॒वानां॒ दक्षि॑णायै दा॒तुरि॒ह भू॑यासम॒यं मे॒ कामः॒ समृ॑ध्यता॒मुप॑ मा॒दो न॑मतु॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑। इ॒माम्। वाच॑म्। क॒ल्या॒णीम्। आ॒वदा॒नीत्या॒ऽवदा॑नि। जने॑भ्यः। ब्र॒ह्म॒रा॒ज॒न्या᳖भ्याम्। शूद्राय॑। च॒। अर्या॑य। च॒। स्वाय॑। च॒। अर॑णाय। प्रि॒यः। दे॒वाना॑म्। दक्षि॑णायै। दा॒तुः। इ॒ह। भू॒या॒स॒म्। अ॒यम्। मे॒। कामः॑। सम्। ऋ॒ध्य॒ता॒म्। उप॑। मा॒। अ॒दः। न॒म॒तु ॥२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथेमाँवाचङ्कल्याणीमावदानि जनेभ्यः । ब्रह्मराजन्याभ्याँ शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय । प्रियो देवानान्दक्षिणायै दातुरिह भूयासमयम्मे कामः समृध्यतामुप मादो नमतु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यथा। इमाम्। वाचम्। कल्याणीम्। आवदानीत्याऽवदानि। जनेभ्यः। ब्रह्मराजन्याभ्याम्। शूद्राय। च। अर्याय। च। स्वाय। च। अरणाय। प्रियः। देवानाम्। दक्षिणायै। दातुः। इह। भूयासम्। अयम्। मे। कामः। सम्। ऋध्यताम्। उप। मा। अदः। नमतु॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 26; मन्त्र » 2
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    भावार्थ -
    मैं परमेश्वर और राजा (यथा) जिस प्रकार ( इमाम् ) इस ( कल्याणीं वाचम् ) सबको सुख देने वाली वाणी को ( जनेभ्यः) समस्त उत्पन्न लोकों के हित के लिये (ब्रह्मराजन्याभ्याम् ) ब्राह्मण, क्षत्रिय, (शूद्राय) शूद्र और (अर्याय च ) वैश्य, (स्वाय च) अपने प्रिय लगने और (अरणाय) प्रिय न लगने वाले, अपने और पराये सब जनों के लिये (आबदानि) सर्वत्र उपदेश करूं । इसी प्रकार मैं भी सब जनों की हितकारी वाणी बोलूं। जिससे मैं ( देवानम् ) विद्वानों का और (दक्षिणायै दातुः) दक्षिणा, वृत्ति देने हारे पुरुष का भी (इह) इस राष्ट्र में या लोक में ( प्रियः भूयासम् ) प्रिय होऊं । (मे भयं काम:) मेरी यह कामना, ( समृध्यताम् ) पूर्ण हो । (अदः) अमुक पुरुष और मेरा अमुक प्रयोजन ( मा उपनमतु) मुझे प्राप्त हो, मेरे अनुकूल हो, मेरे वश या अधीन हो । परमेश्वर जिस प्रकार सबके हितार्थ वेद-वाणी का उपदेश करता है इसी प्रकार राजा भी अपनी आज्ञा-वाणी को सर्वहितार्थ बोले, वह विद्वानों और प्रयोजनों के वृत्तिदाता धनकुबेरों का भी प्रिय होकर रहे । उसकी सब इच्छा पूर्ण हो, इस प्रकार उसके अनुकूल, प्रतिकूल समीप और दूर के सभी व्यक्ति और राष्ट्र भी इसके अधीन हों ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ईश्वरो देवता । स्वराड् अष्टिः । गान्धारः ॥

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