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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 11
    ऋषिः - बृहदुक्थो वामदेव्य ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    1

    प्र॒जाप॑ते॒स्तप॑सा वावृधा॒नः स॒द्यो जा॒तो द॑धिषे य॒ज्ञम॑ग्ने।स्वाहा॑कृतेन ह॒विषा॑ पुरोगा या॒हि सा॒ध्या ह॒विर॑दन्तु दे॒वाः॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒जाप॑ते॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तेः। तप॑सा। वा॒वृ॒धा॒नः। व॒वृ॒धा॒नऽइति॑ ववृधा॒नः। स॒द्यः। जा॒तः। द॒धि॒षे॒। य॒ज्ञम्। अ॒ग्ने॒। स्वाहा॑कृते॒नेति॒ स्वाहा॑ऽकृतेन। ह॒विषा॑। पु॒रो॒गा॒ इति॑ पुरःऽगाः। या॒हि। सा॒ध्या। ह॒विः। अ॒द॒न्तु॒। दे॒वाः ॥११ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रजापतेस्तपसा वावृधानः सद्यो जातो दधिषे यज्ञमग्ने । स्वाहाकृतेन हविषा पुरोगा याहि साध्या हविरदन्तु देवाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्रजापतेरिति प्रजाऽपतेः। तपसा। वावृधानः। ववृधानऽइति ववृधानः। सद्यः। जातः। दधिषे। यज्ञम्। अग्ने। स्वाहाकृतेनेति स्वाहाऽकृतेन। हविषा। पुरोगा इति पुरःऽगाः। याहि। साध्या। हविः। अदन्तु। देवाः॥११॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 11
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    भावार्थ -
    हे (अग्ने) अग्ने ! अग्रणी, विद्वन् ! तू ( प्रजापतेः ) प्रजा के पालक राजा पद के ( तपसा ) तप से, प्रभाव से ( वावृधानः ) वृद्धि को प्राप्त होता हुआ, (सद्यः जातः) जीघ्र राजा बनकर (यज्ञम् ) राष्ट्ररूप कार्य को (दधिषे ) धारण कर । तू (स्वाहाकृतेन) स्वाहा द्वारा अग्नि में आहुति किये हुए (हविषा ) अन्न से अथवा (सु-आह-कृतेन) उत्तम कीर्ति के जनक ( हविषा ) उपाय से (पुरोगा: ) अग्रगामी होकर ( याहि ) प्रयाण कर और ( साध्याः ) उत्तम रीति से साधन सम्पन्न ( देवाः ) विद्वान् और विजयी, वीर जन ( हविः अदन्तु ) अन्न और उपादेय राष्ट्र का उपभोग करें । अग्नि में चरु भस्म होकर दिव्य पदार्थों में लीन हो जाता है इसी प्रकार राजा द्वारा कर रूप में प्राप्त किया, पदार्थ विद्वानों,वीरों विजेता, सेना पुरुषों के कामों में व्यय होता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निः । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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