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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 15
    ऋषिः - भार्गवो जमदग्निर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    त्रीणि॑ तऽआहुर्दि॒वि बन्ध॑नानि॒ त्रीण्य॒प्सु त्रीण्य॒न्तः स॑मु॒द्रे।उ॒तेव॑ मे॒ वरु॑णश्छन्त्स्यर्व॒न् यत्रा॑ तऽआ॒हुः प॑र॒मं ज॒नित्र॑म्॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रीणि॑। ते॒। आ॒हुः॒। दि॒वि। बन्ध॑नानि। त्रीणि॑। अ॒प्स्वित्य॒प्ऽसु। त्रीणि॑। अ॒न्तरित्य॒न्तः। स॒मु॒द्रे। उ॒तेवेत्यु॒तऽइ॑व। मे॒। वरु॑णः। छ॒न्त्सि॒। अ॒र्व॒न्। यत्र॑। ते॒। आ॒हुः। प॒र॒मम्। ज॒नित्र॑म् ॥१५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रीणि तऽआहुर्दिवि बन्धनानि त्रीण्यप्सु त्रीण्यन्तः समुद्रे । उतेव मे वरुणश्छन्त्स्यर्वन्यत्रा तऽआहुः परमञ्जनित्रम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्रीणि। ते। आहुः। दिवि। बन्धनानि। त्रीणि। अप्स्वित्यप्ऽसु। त्रीणि। अन्तरित्यन्तः। समुद्रे। उतेवेत्युतऽइव। मे। वरुणः। छन्त्सि। अर्वन्। यत्र। ते। आहुः। परमम्। जनित्रम्॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 15
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    भावार्थ -
    हे राजन् ! हे विद्वन् ! हे आत्मन् ! (दिवि ) द्यौ लोक में सूर्य के ( त्रीणि बन्धनानि ) तीन बांधने वाले बल हैं और ( त्रीणि अप्सु) तीन ही बंधन जलों में हैं - अन्न, स्थान और बीज और इसी प्रकार ( त्रीणि अन्तः समुद्रे) तीन ही बंधन अन्तरिक्ष में वृष्टि के उत्पादक हैं- मेघ, विधुत् और गर्जन । उसी प्रकार हे राजन् ! (दिवि ) ज्ञान प्रकाशक राजसभा तेरे तीन प्रकार के बंधन या मर्यादाएं हैं। तीन बंधन आप्त या प्रजाओं के बीच में हैं और समुद्र के समान अपार अनंत सुखजनक पदार्थों के उत्पादक, राष्ट्र या सेनासमुदाय में भी कहे जाते हैं । हे (अर्वन् ) अर्वन् ! राजन्! विद्वन्! (वरुणः) सर्वश्रेष्ठ होकर तू (मे) मुझे तीन प्रकार के बन्धन ( आहुः ); राजन् ! विद्वन् ! ( उतेव ) और राष्ट्र जन को (छन्तिस) सन्मार्ग का उपदेश कर ( यत्र ) जहां (ते) तेरा (परमम् ) परम, सबसे उत्कृष्ट ( जनित्रम् ) जन्म या विकास हुआ (आहुः) बतलाते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निः । भुरिक् पंक्तिः । पंचमः ॥

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