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  • यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 2
    ऋषिः - नारायण ऋषिः देवता - ईशानो देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    पुरु॑षऽए॒वेदꣳ सर्वं॒ यद्भू॒तं यच्च॑ भाव्यम्।उ॒तामृ॑त॒त्वस्येशा॑नो॒ यदन्ने॑नाति॒रोह॑ति॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुरु॑षः। ए॒व। इ॒दम। सर्व॑म्। यत्। भू॒तम्। यत्। च॒। भा॒व्य᳖म् ॥ उ॒त। अ॒मृ॒तत्वस्येत्य॑मृत॒ऽत्वस्य॑। ईशा॑नः। यत्। अन्ने॑न। अ॒ति॒रोहतीत्य॑ति॒ऽरोह॑ति ॥२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुरुष एवेदँ सर्वँयद्भूतञ्यच्च भाव्यम् । उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पुरुषः। एव। इदम। सर्वम्। यत्। भूतम्। यत्। च। भाव्यम्॥ उत। अमृतत्वस्येत्यमृतऽत्वस्य। ईशानः। यत्। अन्नेन। अतिरोहतीत्यतिऽरोहति॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 31; मन्त्र » 2
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    भावार्थ -
    ( पुरुषः एव) वह जगत् में पूर्ण व्यापक परमेश्वर ही है (यत् भूतम् ) जो जगत् उत्पन्न है ( यत् च ) और जो ( भाव्यम् ) भविष्य में उत्पन्न होगा और ( यत् ) जो (अन्नेन) भोग्य अन्न के समान भोग्य कर्मफल से स्वयं (अति रोहिति) शरीर, स्थावर जंगम रूप पृथिव्यादि पर उत्पन्न होता ( इदं सर्वम् ) इस सबका (उत) और (अमृतत्वस्य) अमृततत्व, मोक्ष या सत्, अविनाशी स्वरूप का (ईशान:) स्वामी, परमेश्वर है । वही सब कुछ रचता है । सायण के मत में—भूत और भव्य सब वही पुरुष है । वही अमृतत्व का स्वामी भी है । वही भोग्य अन्न के निमित्त से जगत् रूप में प्रकट होता है । 'अन्नेनातिरोहति'—भोग्येन अन्नेननिमित्तभूतेन स्वकीयकारणा- वस्थामतिक्रम्य परिदृश्यमानां जगदवस्थां प्राप्नोति । तस्मात्प्राणिनां कर्मभोगाय जगदवस्थास्वीकारान्नेदम् तस्य वस्तुतत्वम् । इति सायणः ॥ भोग्य अन्न के कारण अपनी कारण-दशा से पार होकर पुरुष दृश्य जगत् का रूप प्राप्त करता है । फल भोग के लिये वह जगत् की दशा में आता है, वह वैसा है नहीं । सायण के मत में ब्रह्म परिणामी हो जाता है। जीवों के कर्म फल भोग के लिये जीव शरीर धारण करे, सो युक्ति- युक्त है । ईश्वर ही स्वयं ब्रह्माण्ड शरीर में बंधे, यह अनुचित है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ईशानः । निचृदनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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