यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 9
ऋषिः - नारायण ऋषिः
देवता - पुरुषो देवता
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
3
तं य॒ज्ञं ब॒र्हिषि॒ प्रौक्ष॒न् पुरु॑षं जा॒तम॑ग्र॒तः।तेन॑ दे॒वाऽअ॑यजन्त सा॒ध्याऽऋष॑यश्च॒ ये॥९॥
स्वर सहित पद पाठतम्। य॒ज्ञम्। ब॒र्हिषि॑। प्र। औ॒क्ष॒न्। पुरु॑षम्। जा॒तम्। अ॒ग्र॒तः ॥ तेन॑। दे॒वाः। अ॒य॒ज॒न्त॒। सा॒ध्याः। ऋष॑यः। च॒। ये ॥९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तँयज्ञम्बर्हिषि प्रौक्षन्पुरुषञ्जातमग्रतः । तेन देवाऽअयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥
स्वर रहित पद पाठ
तम्। यज्ञम्। बर्हिषि। प्र। औक्षन्। पुरुषम्। जातम्। अग्रतः॥ तेन। देवाः। अयजन्त। साध्याः। ऋषयः। च। ये॥९॥
विषय - उस पुरुष का सर्वोपरि अभिषेक और विद्वानों द्वारा पूजा ।
भावार्थ -
(तम् ) उस ( यज्ञम् ) पूजनीय, ( अग्रत: जातम् ) सबसे आगे, प्रादुर्भूत जगत् के कर्त्ता, (पुरुषम् ) पूर्ण परमेश्वर को ( अग्रतः ) सृष्टि के पूर्व (बर्हिषि) विद्यमान महान् ब्रह्माण्ड रूप यज्ञ में ( प्र औक्षन् ) खूब अभिषिक्त करते हैं । ( तेन ) उसी ज्ञानमय परम पुरुष रूप से (साध्याः ) योगाभ्यास आदि के साधना वाले ज्ञानी और (ऋषयः च) ऋषि (ये च) और जो भी हैं वे (अजयन्त) उपासना करते हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - निचृदनुष्टुप् । गान्धारः ॥
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