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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - विष्णुर्यज्ञो देवता छन्दः - आर्षी गायत्री स्वरः - षड्जः, धैवतः
    1

    अ॒ग्नेर्ज॒नित्र॑मसि॒ वृष॑णौ स्थऽउ॒र्वश्य॑स्या॒युर॑सि पुरू॒रवा॑ऽअसि। गा॒य॒त्रेण॑ त्वा॒ छन्द॑सा मन्थामि॒ त्रैष्टु॑भेन त्वा॒ छन्द॑सा मन्थामि॒ जाग॑तेन त्वा॒ छन्द॑सा मन्थामि॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नेः। ज॒नित्र॑म्। अ॒सि॒। वृष॑णौ। स्थः॒। उ॒र्वशी॑। अ॒सि॒। आ॒युः। अ॒सि॒। पु॒रू॒रवाः॑। अ॒सि॒। गा॒य॒त्रेण॑। त्वा॒। छन्द॑सा। म॒न्था॒मि॒। त्रैष्टु॑भेन। त्वा॒। छन्द॑सा। म॒न्था॒मि॒। जाग॑तेन। त्वा॒। छन्द॑सा। म॒न्था॒मि॒ ॥२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नेर्जनित्रमसि वृषणौ स्थऽउर्वश्यस्यायुरसि पुरूरवाऽअसि गायत्रेण त्वा छन्दसा मन्थामि त्रैष्टुभेन त्वा छन्दसा मन्थामि जागतेन त्वा छन्दसा मन्थामि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नेः। जनित्रम्। असि। वृषणौ। स्थः। उर्वशी। असि। आयुः। असि। पुरूरवाः। असि। गायत्रेण। त्वा। छन्दसा। मन्थामि। त्रैष्टुभेन। त्वा। छन्दसा। मन्थामि। जागतेन। त्वा। छन्दसा। मन्थामि॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 2
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    भावार्थ -

    -हे राष्ट्र ! तू ( अग्नेः जनित्रम् अस ) जिस प्रकार अग्नि को उत्पन्न करने के लिये नीचे काष्ठखण्ड रक्खा होता है, उस पर अग्नि उत्पन्न होती है उसी प्रकार तू भी ( अग्नेः ) आग्नि के समान शत्रुतापक राजा का (जनित्रम्) उत्पन्न करने वाला, उसका भोग्य रूप अन्न है। हे शत्रुहिंसक सेनापति और मन्त्रिन् ! तुम दोनों (वृषणौ स्थः ) जिस प्रकार पुत्र को उत्पन्न करने वाले माता पिता दोनों वीर्य सेचन क्रिया में समर्थ होते हैं उसी प्रकार तुम दोनों भी ( वृषणौ ) सूर्य वायु के समान राजा के समस्त कार्यों में बल प्रदान करने वाले हो । हे राजसभे ! ( उर्वशी असि ) तू उस विशाल राष्ट्र को वश करने में समर्थ है। हे राजन् या सभापते ! तू ( पुरूरवाः असि ) बहुत से पुरुषों तक अपना ज्ञानमय उपदेश पहुंचाने में समर्थ सुवक्ता, उपदेष्टा है । हे राजन् ! (त्वा ) तुझको ( गायत्रेण छन्दसा ) ब्राह्मणों विद्वान् पुरुषों के रक्षा बल से ( मन्थामि ) मथता हूँ | (त्रैष्टुभेन छन्दसा ) त्रिष्टुप् अर्थात् क्षात्र बल से मथता हूँ । ( त्वा जागतेन छन्दसा मन्थामि ) तुझको जागत अर्थात् वैश्य के बल से मथता हूं ॥
     
    पुत्रोत्पत्ति पक्ष में -- जिस प्रकार हे वीर्य रूप हवि ! तू अग्नि चेतना का उत्पत्तिस्थान है, शरीर में ( वृषणौ स्थः ) सेचन समर्थ स्त्री पुरुष हैं । उर्वशी स्त्री है, पुरुरवा पुरुष पति है । उसी प्रकार यह सूर्य का तेज ही विद्युत का उत्पत्ति स्थान है। सूर्य और वायु जल को आकाश में सेचन करते हैं, उर्वशी विद्युत् है। उसका पालक मेघ दुरुरवा महान् गर्जन करता है ।
     गायत्री आदि पृथिवी, अन्तरिक्ष द्यौः लोक के भिन्न २ व्यापार से वह मंधित होती है ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

     प्रजापतिःऋषिः।शकलं दर्भतृणे, अधरोत्तराण्यौ, अग्निश्च, विष्णुर्यज्ञो वा देवता । ( १) आर्षीगायत्री षड्जः (२) आर्षी त्रिष्टुप्। धैवतः ॥

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