यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 32
ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - स्वराट् ब्राह्मी त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
1
उ॒शिग॑सि क॒विरङ्घा॑रिरसि॒ बम्भा॑रिरव॒स्यूर॑सि दुव॑स्वाञ्छु॒न्ध्यूर॑सि मार्जा॒लीयः॑। स॒म्राड॑सि कृ॒शानुः॑ परि॒षद्यो॑ऽसि॒ पव॑मानो॒ नभो॑ऽसि प्र॒तक्वा॑ मृ॒ष्टोऽसि हव्य॒सूद॑नऽऋ॒तधा॑मासि॒ स्वर्ज्योतिः॥३२॥
स्वर सहित पद पाठउ॒शिक्। अ॒सि॒। क॒विः। अङ्घा॑रिः। अ॒सि॒। बम्भा॑रिः। अ॒व॒स्यूः। अ॒सि॒। दुव॑स्वान्। शु॒न्ध्यूः। अ॒सि॒। मा॒र्जा॒लीयः॑। स॒म्राडिति॑ स॒म्ऽराट्। अ॒सि॒। कृ॒शानुः॑। प॒रि॒षद्यः॑। प॒रि॒षद्य॒ इति॑ परि॒ऽसद्यः॑। अ॒सि॒। पव॑मानः। नभः॑। अ॒सि॒। प्र॒तक्वेति॑ प्र॒ऽतक्वा॑। मृ॒ष्टः। अ॒सि॒। ह॒व्य॒सूद॑न॒ इति॑ हव्य॒ऽसूद॑नः। ऋ॒तधा॒मेत्यृ॒तऽधा॑मा। अ॒सि॒। स्व॑र्ज्योति॒रिति॒ स्वः॑ऽज्योतिः॑ ॥३२॥
स्वर रहित मन्त्र
उशिगसि कविरङ्ङ्घारिरसि बम्भारिरवस्यूरसि दुवस्वाञ्छुन्ध्यूरसि मार्जालीयः सम्राडसि कृशानुः परिषद्यो सि पवमानो नभोसि प्रतक्वा मृष्टोसि हव्यसूदनऽऋतधामासि स्वर्ज्यातिः समुद्रोसि ॥
स्वर रहित पद पाठ
उशिक्। असि। कविः। अङ्घारिः। असि। बम्भारिः। अवस्यूः। असि। दुवस्वान्। शुन्ध्यूः। असि। मार्जालीयः। सम्राडिति सम्ऽराट्। असि। कृशानुः। परिषद्यः। परिषद्य इति परिऽसद्यः। असि। पवमानः। नभः। असि। प्रतक्वेति प्रऽतक्वा। मृष्टः। असि। हव्यसूदन इति हव्यऽसूदनः। ऋतधामेत्यृतऽधामा। असि। स्वर्ज्योतिरिति स्वःऽज्योतिः॥३२॥
विषय - राजा के कुछ उच्च अधिकारसूचक पद ।
भावार्थ -
हे राजन् ! तू ( उशिग् ) सबका वश करने हारा एवं कान्ति- मानू. तेजस्वी और ( कविः ) कान्तदर्शी, मेधावी ( असि ) है। तू ( अंधारिः )अंघ अर्थात् पापी कुटिल जीवों या पापों का अरि शत्रु है । और ( बम्भारिः ) पापी दुष्ट पुरुषों का बांधने वाला या सबका भरण पोषण करने में समर्थ हौ
| तू ( अवस्यूः ) अपने नीचे के समस्त कार्य कर्त्ताओं को सिये रहता या परस्पर संयुक्त किये रहने में समर्थ या ( अवस्युः ) रक्षा करने में समर्थ है और (दुवस्वान् ) अन्न या सेवा करने योग्य ऐश्वर्य गुण से युक्त है। तू. ( शुन्घ्युः ) स्वयं शुद्ध, निष्पाप और ( मार्जालीयः )अन्यों का भी शोधन करने हारा पापों को पता लगाकर उनका दण्ड देकर पापों का शोधने हारा ( असि ) है । तू ( परिषद्यः ) परिषद् विद्वानों की सभा में विराजने हारा है, उस द्वारा राजा बनाया जाता है और तू ( पवमानः ) सत्या सत्य का निर्णय करके सत्य के बल से पवित्र करने वाला है । तू ( नभः ) सबको परस्पर बांधने, संगठित करने हारा या चोरादि को वध दण्ड देने वाला या उनको बांधने वाला और ( प्रतक्का ) ' उनको खूब अच्छी प्रकार पीड़ा देने वाला ( असि ) है । तू (मृष्टः २ ) सबको सेचन करने हारा, सबका पोषक या सहिष्णु और तितिक्षु और ( ह्व्यसूदनः ) * समस्त अनों और ऐश्वर्य के पदार्थों को क्षरित करने वाला, सबको प्रदान करने वाला ( अलि ) है । (ऋतधामासि ) सत्य का धारण करने वाला सत्य का आश्रय और और जलके धारण करने में समर्थ सूर्य के समान ( स्वज्योतिः ) आकाश में चमकने वाला साक्षात् सूर्य है या (स्वःज्योतिः ) शत्रुओं का उपताप देने हारे प्रचण्ड भानु के समान (असि ) है । ये ही सब विशेषण ईश्वर के भी हैं ।
टिप्पणी -
३२ -- १ तकि कृच्छ्र जीवने भ्वादि । २. मृषु सेचने, सहने च भ्वादी । मृषति तिक्षियाम चुरादिः । ३ षूद्र क्षरणे चुरादिः । स्वादिश्व | अग्निदेवता ॥ द०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
प्रजापतिःऋषिः। आहवनीयो वहिष्पवमानदेशा: चात्वालीः, शामित्रः, औदुम्बरीय अग्निर्वा देवताः । स्वराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् । धैवतः ।
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