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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    भव॑तं नः॒ सम॑नसौ॒ सचे॑तसावरे॒पसौ॑। मा य॒ज्ञꣳ हि॑ꣳसिष्टं॒ मा य॒ज्ञप॑तिं जातवेदसौ शि॒वौ भ॑वतम॒द्य नः॑॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भव॑तम्। नः॒। सम॑नसा॒विति॒ सऽम॑नसौ। सचे॑तसा॒विति॒ सऽचे॑तसौ। अ॒रे॒पसौ॑। मा। य॒ज्ञम्। हि॒सि॒ष्ट॒म्। मा। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। जा॒त॒वे॒द॒सा॒विति॑ जातऽवेदसौ। शि॒वौ। भ॒व॒त॒म्। अ॒द्य। नः॒ ॥३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भवतन्नः समनसौ सचेतसावरेपसौ । मा यज्ञँ हिँसिष्टंम्मा यज्ञपतिञ्जातवेदसौ शिवौ भवतमद्य नः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    भवतम्। नः। समनसाविति सऽमनसौ। सचेतसाविति सऽचेतसौ। अरेपसौ। मा। यज्ञम्। हिसिष्टम्। मा। यज्ञपतिमिति यज्ञऽपतिम्। जातवेदसाविति जातऽवेदसौ। शिवौ। भवतम्। अद्य। नः॥३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 3
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    भावार्थ -

    हे स्त्री और पुरुष तुम दोनो ! ( नः ) हममें ( सचेतसौ ) समान चित्त वाले ( अरेपसौ ) पापरहित ( समनसौ ) एक समान ज्ञान या संकल्प विकल्प वाले ( भवतम् ) होकर रहो। तुम दोनों ( यज्ञम् ) एक दूसरे के प्रति परस्पर दान या परस्पर के संग को ( मा हिंसिष्टम् ) विनाश मत करो । ( यज्ञपतिम् ) इस यज्ञ के पालक को भी नाश मत करो । ( जातवेदसौ ) धन और ज्ञान से युक्त होकर ( अद्य ) आज से ( नः ) हमारे लिये (शिवौ) कल्याण और सुखकारी (भवतम्) होकर रहो। इसी प्रकार अध्यापक शिष्य, राजा प्रजा, राजा सचिव आदि पर भी यह मन्त्र समान रूप से लगता है | शत० ३ । ४ । १ । २०-२३ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    प्रजापतिःऋषिः। यज्ञो दवेता । पंक्तिः । पञ्चमः स्वरः ॥
     

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