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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 22
    ऋषिः - औतथ्यो दीर्घतमा ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - साम्नी पङ्क्ति,भूरिक् आर्षी बृहती, स्वरः - पञ्चमः
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    दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। आद॑दे॒ नार्य॑सी॒दम॒हꣳ रक्ष॑सां ग्री॒वाऽअपि॑ कृन्तामि। बृ॒हन्न॑सि बृ॒हद्र॑वा बृह॒तीमिन्द्रा॑य॒ वाचं॑ वद॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्यामिति॒ हस्ता॑ऽभ्याम्। आद॑दे। नारी॑। अ॒सि॒। इ॒दम्। अ॒हम्। रक्ष॑साम्। ग्री॒वाः। अपि॑। कृ॒न्ता॒मि॒। बृ॒हन्। अ॒सि॒। बृ॒हद्र॑वा॒ इति॑ बृ॒हत्ऽर॑वाः। बृ॒ह॒तीम्। इन्द्रा॑य। वाच॑म्। व॒द॒ ॥२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विनोर्बाहुभ्याम्पूष्णो हस्ताभ्याम् । आददे नार्यसीदमहँ रक्षसाङ्ग्रीवा अपिकृन्तामि । बृहन्नसि बृहद्रवा बृहतीमिन्द्राय वाचँ वद ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवस्य। त्वा। सवितुः। प्रसव इति प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुभ्यामिति बाहुऽभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्यामिति हस्ताऽभ्याम्। आददे। नारी। असि। इदम्। अहम्। रक्षसाम्। ग्रीवाः। अपि। कृन्तामि। बृहन्। असि। बृहद्रवा इति बृहत्ऽरवाः। बृहतीम्। इन्द्राय। वाचम्। वद॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 22
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    भावार्थ -

    हे स्त्री ! ( सवितुः ) सर्वोत्पादक ( देवस्य ) परमेश्वर के ( प्रसवे ) इस ऐश्वर्यमय संसार में ( अश्विनोः ) स्त्री पुरुष, जायापति की बाहुओं और (पूष्णः ) पुष्टिकारक पोषक पति के ( हस्ताभ्याम् ) हाथों से ( आददे ) स्वीकार करता हूँ। हे स्त्रि ! तू ( नारी असि ) नारी गृहस्थ के समस्त कार्यों की नेत्री है और (अहं) में पुरुष तेरा पति ( इदम् ) यह इस प्रकार से ( रक्षसां ग्रीवाः अपि कृन्तामि ) विघ्नकारी दुष्ट पुरुषों की गर्दनों को काटू । हे विद्वान् पुरुष ! तू ( बृहन् असि ) हम में सबसे बड़ा, ज्ञानवृद्ध | तू ( बृहद् -रवा ) बड़ा भारी उपदेशक है। तू (इन्द्राय ) इन्द ऐश्वर्यवान् राजा को ( बृहतीं वाचम् वद ) बृहती वेदवाणी का उपदेश कर ॥
    सेना के पक्ष में - राजा के राज्य में मैं सेनापति उस 'नारी' अर्थात् मनुष्यों को बनी सेना को अपने वश करूं । मैं दुष्ट पुरुषों की गर्दन काटूं । विद्वान पुरुष राजा को वेदवाणी या राज नीति का उपदेश करें ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    प्रजापतिःऋषिः।सविताभ्रि-रक्षौघ्नंभुपरवाश्च यज्ञो वा देवता । ( १ ) साम्नीपंक्तिः । पञ्चमः॥ 
    (२) भुरिगार्षी बृहती । मध्यमः ॥

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