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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 20
    ऋषिः - मयोभूर्ऋषिः देवता - क्षत्रपतिर्देवता छन्दः - निचृदार्षी बृहती स्वरः - मध्यमः
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    द्यौस्ते॑ पृ॒ष्ठं पृ॑थि॒वी स॒धस्थ॑मा॒त्मान्तरि॑क्षꣳ समु॒द्रो योनिः॑। वि॒ख्याय॒ चक्षु॑षा॒ त्वम॒भि ति॑ष्ठ पृतन्य॒तः॥२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्यौः। ते॒। पृ॒ष्ठम्। पृ॒थि॒वी। स॒धस्थ॒मिति॑ स॒धऽस्थ॑म्। आ॒त्मा। अ॒न्तरि॑क्षम्। स॒मु॒द्रः। योनिः॑। वि॒ख्यायेति॑ वि॒ऽख्याय॑। चक्षु॑षा। त्वम्। अ॒भि। ति॒ष्ठ॒। पृ॒त॒न्य॒तः ॥२० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्यौस्ते पृष्ठम्पृथिवी सधस्थमात्मान्तरिक्षँ समुद्रो योनिः । विख्याय चक्षुषा त्वमभि तिष्ठ पृतन्यतः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    द्यौः। ते। पृष्ठम्। पृथिवी। सधस्थमिति सधऽस्थम्। आत्मा। अन्तरिक्षम्। समुद्रः। योनिः। विख्यायेति विऽख्याय। चक्षुषा। त्वम्। अभि। तिष्ठ। पृतन्यतः॥२०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 20
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे विद्वान राजा, (ते) आपला (द्यौ:) प्रकाशाप्रमाणे तेजसी असलेला विनयभाव (विनम्र पण प्रभावी व्यक्तिमत्त्व) (पृष्ठम्) आणि आलीकडील व्यवहार (वा कार्य) तसेच (पृथिवी) भूमीप्रमाणे (सधस्थम्) सहस्थितीचे गुण (अत्तरिक्षम्) आकाशाप्रमाणे अविनाशी धैर्यवृत्ती, (आत्मा) स्वत:चे स्वरूप आणि (समुद्र:) समुद्राप्रमाणे (अगाध) (योनि:) कारण आहे (आपल्या स्वभावात विनम्रता, सहकार्य, धैर्य आणि गांभीर्य आदी गुण आहेत) असे सद्गुणमय (त्वम्) आपण (चधुषा) विचारपूर्वक (नियोजनबद्ध रीतीने) (बिख्याय) आपले ऐश्वर्य वाढवीत (पृतन्यत:) सैन्य घेऊन तुमच्याशी लढण्यास सिद्ध झालेल्या शत्रूच्या (अभि)समोर (तिष्ठ) उभे राहा (धैर्याने त्याचा मुकाबला करा) ॥20॥

    भावार्थ - भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जो मनुष्य (राजा) न्याय्य मार्गाने आचरण करतो, ज्याच्या ठिकाणी उत्साह आहे, ज्याचे स्थान दृढ व आत्मा निश्चयी आहे, जो विचारपूर्वक आपले सर्व प्रयोजन पूर्ण करतो, त्या राजाचे सैन्य वीर व पराक्रमी बनते. असा राजाच स्थायी जय प्राप्त करण्यात यशस्वी होतो ॥20॥

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