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यजुर्वेद अध्याय - 32

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  • यजुर्वेद - अध्याय 32/ मन्त्र 16
    ऋषिः - श्रीकाम ऋषिः देवता - विद्वद्राजानौ देवते छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    इ॒दं मे॒ ब्रह्म॑ च क्ष॒त्रं चो॒भे श्रिय॑मश्नुताम्।मयि॑ दे॒वा द॑धतु॒ श्रिय॒मुत्त॑मां॒ तस्यै॑ ते॒ स्वाहा॑॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम्। मे॒। ब्रह्म॑। च॒। क्ष॒त्रम्। च॒। उ॒भेऽइत्यु॒भे। श्रिय॑म्। अ॒श्नु॒ताम्। मयि॑। दे॒वाः। द॒ध॒तु॒। श्रिय॑म्। उत्त॑मा॒मित्युत्ऽत॑माम्। तस्यै॑। ते॒। स्वाहा॑ ॥१६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदम्मे ब्रह्म च क्षत्रञ्चोभे श्रियमश्नुताम् । मयि देवा दधतु श्रियमुत्तमान्तस्यै ते स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इदम्। मे। ब्रह्म। च। क्षत्रम्। च। उभेऽइत्युभे। श्रियम्। अश्नुताम्। मयि। देवाः। दधतु। श्रियम्। उत्तमामित्युत्ऽतमाम्। तस्यै। ते। स्वाहा॥१६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 32; मन्त्र » 16
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    व्याखान -

    हे महाविद्य ! महाराज ! सर्वेश्वर ! मे ब्रह्म= मेरा ब्रह्म अर्थात् विद्वान् र क्षत्रम् = राजा महाचतुर, न्यायकारी, शूरवीरक्षत्रिय उभे= ई दुवै तपाईंका अनन्त कृपा ले यथावत् अनुकूल हुन् । श्रियम् = सर्वोत्तम् विद्यादिलक्षण ले युक्त महाराज्यश्री मा हामी प्राप्त हौं । हे देवाः = विद्वज्जन ! तपाईंहरुले उत्तमांश्रियम् = दिव्य ईश्वर का गुण, परमकृपा आदि तथा विद्यादिलक्षणसमन्वित श्री लाई मँ मा दध - अचलता पूर्वक धारण गराउनु होस् तस्यै= तेस श्री लाई मँ अत्यन्त प्रीतिपूर्वक स्वीकार गरुँ र त्यो श्री लाई विद्यादि सद्गुण र सम्पूर्ण संसार को हित का लागी तथा राज्यादि प्रबन्ध का लागी व्यय गरूँ ॥५५॥

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