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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 25
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    वस्वी॑ ते अग्ने॒ संदृ॑ष्टिरिषय॒ते मर्त्या॑य। ऊर्जो॑ नपाद॒मृत॑स्य ॥२५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वस्वी॑ । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । सम्ऽदृ॑ष्टिः । इ॒ष॒ऽय॒ते । मर्त्या॑य । ऊर्जः॑ । न॒पा॒त् । अ॒मृत॑स्य ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वस्वी ते अग्ने संदृष्टिरिषयते मर्त्याय। ऊर्जो नपादमृतस्य ॥२५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वस्वी। ते। अग्ने। सम्ऽदृष्टिः। इषऽयते। मर्त्याय। ऊर्जः। नपात्। अमृतस्य ॥२५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 25
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    उत्तमस्य व्यवहारः सङ्गो वा निष्फलो न भवतीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! ते वस्वी सन्दृष्टिरिषयते मर्त्यायाऽमृतस्योर्जो नपाद्भवति ॥२५॥

    पदार्थः

    (वस्वी) पृथिव्यादिवसुसम्बन्धिनी (ते) तव (अग्ने) पावक इव (सन्दृष्टिः) सम्यक् पश्यन्ति यथा सा (इषयते) इषमन्नं विज्ञान वां कामयमानाय (मर्त्याय) मनुष्याय (ऊर्जः) बलादियुक्तस्य (नपात्) या न पतति (अमृतस्य) नाशरहितस्य ॥२५ ॥

    भावार्थः

    यस्य विदुषो विद्यादर्शनं निष्फलं न जायते, यस्मादधीत्य विद्वांसो भवन्ति तं सदा सत्कुरुत ॥२५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    उत्तम जन का व्यवहार वा सङ्ग निष्फल नहीं होता, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान (ते) आपकी (वस्वी) पृथिवी आदि वसुसम्बन्धिनी (सन्दृष्टिः) उत्तम प्रकार देखते जिससे वह दृष्टि (इषयते) अन्न वा विज्ञान की कामना करते हुए (मर्त्याय) मनुष्य के लिये (अमृतस्य) नाशरहित और (ऊर्जः) बल आदि युक्त की (नपात्) नहीं गिरनेवाली होती है ॥२५॥

    भावार्थ

    जिस विद्वान् का विद्यादर्शन-विद्या निष्फल नहीं होता और जिससे पढ़कर विद्यार्थी जन विद्वान् होते हैं, उसका सदा सत्कार करो ॥२५॥

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    विषय

    राजा विद्वान् और प्रभु का सम्यग् दर्शन सर्वलोक-हितार्थ है ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार सूर्य वा अग्नि का ( संदृष्टिः ) अच्छी प्रकार देखना वा प्रकाशित होना मनुष्यमात्र को बसाता है, (इषयते ) अन्नदेता है, उसी प्रकार हे ( अग्ने ) अग्रणी नायक ! हे तेजस्वी पुरुष ! हे प्रकाशस्वरूप ! हे ( ऊर्जः नपात् ) अन्न और बल को न गिरने देने हारे, उस के धारक ! ( अमृतस्य ) अविनाशी, हे दीर्घायु ! (ते ) तेरा (सम् दृष्टि: ) सम्यक् दर्शन ही ( वस्वी ) सबको बसाने वाला होकर (मर्त्याय इषयते ) मनुष्यमात्र को अन्नवत् पुष्ट करता और प्रेरित करता है । (२) अविनाशी प्रभु का सम्यग् दर्शन मनुष्यमात्र को अन्नवत् पालता, संसार भर को सञ्चालित कर रहा है। यदि ह्यहं न वर्त्तय जातुकर्मण्यतन्द्रितः । इति पञ्चविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    यदि ह्यहं न वर्त्तय जातुकर्मण्यतन्द्रितः । उत्सीदे युरिमे लोकाः ॥ गीता० ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    वस्वी संदृष्टि:

    पदार्थ

    [१] हे (ऊर्जा नपात्) = शक्ति को न गिरने देनेवाले (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (अमृतस्य) = मृत्यु से बचानेवाले [न मृतं यस्मात्] (ते) = आपकी (संदृष्टि:)- संदीप्ति (वस्वी) = हमारे निवास को उत्तम बनानेवाली है। आपकी इसी दीप्ति को प्राप्त करके हमारा जीवन उत्तम बनता है। [२] यह आपकी संदृष्टि (मर्त्याय) = मनुष्य के लिये (इषयते) = प्रेरणा को देने की कामनावाली होती है। इस आपकी दीप्ति से उत्तम प्रेरणा को प्राप्त करके मार्ग पर आगे बढ़ते हुए हम अपने जीवनों को उत्तम बना पायें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु की संदृष्टि [संदीप्ति] हमारे निवास को उत्तम बनाती है, यह हमें जीवन में उन्नति के लिये उत्कृष्ट प्रेरणा प्राप्त कराती है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या विद्वानांची विद्या निष्फळ होत नाही व ज्याच्याजवळ शिकून विद्यार्थी विद्वान होतात त्यांचा सत्कार करा. ॥ २५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, leading light of the world, immortal source of universal strength, your equal vision and provision of earthly settlement and peace for all the mortals yearning for love and sustenance in life is all time sure and true.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The dealing or association with good men is never in vain is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O enlightened person ! you are purifier like the fire, your good look which is connected with the knowledge of the earth and other Vasus (places of habitation) is increaser of the strong and active person who desires to have good food or true knowledge and who is immortal (by the nature of his soul).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! always respect the person whose vision of knowledge is never vain (absolutely useless) and by learning from whom, men become good scholars.

    Foot Notes

    (इषयते) इषमन्नं विज्ञानं वा कामयमानाय । इषम् इत्यन्ननाम (NG 2, 7) इष- गतौ ( दि०) गतेस्त्रिष्वर्थेषु ज्ञानार्थग्रहणमत्न = For a 'man desiring good food or scientific knowledge. ( वस्वी) पृथिव्यादिव - सुसम्बन्धिनी । कतमे वसव इति । अग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षम् चादित्यश्च द्योश्च चन्द्रमाश्च नक्षत्राणि चैते वसवः । एते हीदं सर्वं वासयन्ते तेयविद सर्वं वासयन्ते तस्माद् वसव इति (Stph 17, 6, 3, 6 जैमिनीयो. 2, 77 ) = Belonging to the earth and other vasus places of habitation.

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