ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 48
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
अ॒ग्निं दे॒वासो॑ अग्रि॒यमि॒न्धते॑ वृत्र॒हन्त॑मम्। येना॒ वसू॒न्याभृ॑ता तृ॒ळहा रक्षां॑सि वा॒जिना॑ ॥४८॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम् । दे॒वासः॑ । अ॒ग्रि॒यम् । इ॒न्धते॑ । वृ॒त्र॒हन्ऽत॑मम् । येन॑ । वसू॑नि । आऽभृ॑ता । तृ॒ळ्हा । रक्षां॑सि । वा॒जिना॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निं देवासो अग्रियमिन्धते वृत्रहन्तमम्। येना वसून्याभृता तृळहा रक्षांसि वाजिना ॥४८॥
स्वर रहित पद पाठअग्निम्। देवासः। अग्रियम्। इन्धते। वृत्रहन्ऽतमम्। येन। वसूनि। आऽभृता। तृळ्हा। रक्षांसि। वाजिना ॥४८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 48
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेश्वरविषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथा देवासो वृत्रहन्तममग्रियमग्निमिन्धते येन वाजिनाऽऽभृता वसूनीन्धते रक्षांसि तृळ्हा कुर्वन्ति तथा दोषान् हत्वा परमात्मानं प्रकाशयन्त्येवं यूयमपि कुरुत ॥४८॥
पदार्थः
(अग्निम्) पावकम् (देवासः) विद्वांसः (अग्रियम्) अग्रे भवम् (इन्धते) प्रकाशयन्ति (वृत्रहन्तमम्) यो वृत्रं मेघं हन्ति तमतिशयितम् (येना) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (वसूनि) धनानि (आभृता) समन्ताद्धृतानि (तृळ्हा) हिंसितानि (रक्षांसि) दुष्टाञ्जनान् (वाजिना) वेगेन विज्ञानेन वा ॥४८॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथर्त्विजो यज्ञे वेद्यामग्निं प्रज्वाल्य हविः प्रक्षिप्य जगदुपकुर्वन्ति तथैव योगयुक्ताः सन्न्यासिनः परमात्मानं सर्वेषां हृदयेऽभिप्रकाश्य दोषान्नाशयन्तीति ॥४८॥ अत्राग्निविद्वदीश्वरगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ अस्मिन्नध्यायेऽग्निविश्वेदेवसूर्येन्द्रवैश्वानरमरुद्यज्ञराजधर्म्मविद्वदीश्वरगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वाध्यायार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य्याणां श्रीमद्विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण परमविदुषा श्रीमद्दयानन्दसरस्वती-स्वामिना विरचित ऋग्वेदभाष्ये चतुर्थेऽष्टके पञ्चमोऽध्यायस्त्रिंशो वर्गः षष्ठे मण्डले षोडशं सूक्तञ्च समाप्तम् ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब ईश्वरविषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (देवासः) विद्वान् जन (वृत्रहन्तमम्) मेघ के अत्यन्त नाश करनेवाले और (अग्रियम्) आगे प्रकट हुए (अग्निम्) अग्नि को (इन्धते) प्रकाशित करते हैं और (येन) जिन (वाजिना) वेग वा विज्ञान से (आभृता) चारों ओर से धारण किये गये (वसूनि) धनों को प्रकाशित करते हैं और (रक्षांसि) दुष्ट जनों को (तृळ्हा) हिंसित करते हैं, वैसे ही दोषों का नाश करके परमात्मा को प्रकाशित करते हैं, इस प्रकार आप लोग भी करो ॥४८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे यज्ञ करनेवाले जन यज्ञ में वेदी पर अग्नि को प्रज्वलित करके हवन की सामग्री छोड़ के संसार का उपकार करते हैं, वैसे ही योग से युक्त संन्यासी जन परमात्मा को सब के हृदय मे अच्छे प्रकार प्रकाशित करके दोषों का नाश करते हैं ॥४८॥ इस सूक्त में अग्नि, विद्वान् और ईश्वर के गुणवर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ इस अध्याय में अग्नि, विश्वेदेव, सूर्य्य, इन्द्र, वैश्वानर, वायु, यज्ञ, राजधर्म्म, विद्वान् और ईश्वर के गुणवर्णन करने से इस अध्याय के अर्थ की इससे पूर्व अध्याय के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य श्रीमद्विरजानन्दसरस्वती स्वामी जी के शिष्य परम विद्वान् श्रीमद्दयानन्द सरस्वती स्वामी से रचे गये ऋग्वेदभाष्य में चतुर्थ अष्टक में पाँचवाँ अध्याय, तीसवाँ वर्ग और छठे मण्डल में सोलहवाँ सूक्त भी समाप्त हुआ ॥
विषय
अग्रासन योग्य जन के कर्त्तव्य । ऐश्वर्य प्राप्ति, दुष्ट नाश ।
भावार्थ
( देवासः ) विजयाभिलाषी वीर पुरुष ( वृत्रहन्तमम् ) - बढ़ते, विघ्नकारी शत्रुओं के नाश करने में सब से बढ़ के (अग्रियम्) अग्रासन प्राप्त करने योग्य ( अग्रिम् ) अग्निवत् तेजस्वी, अग्रणी उस पुरुष को ( इन्धते ) अति प्रकाशित और प्रदीप्त करते हैं ( येन वाजिना ) जो संग्रामचतुर और ऐश्वर्य और बल से सम्पन्न पुरुष ( वसूनि आभृता ) नाना धन लाता और ( रक्षांसि तृळ्हा ) दुष्टों को नाश कर चुकता है । इति त्रिंशो वर्गः । इति पञ्चमोऽध्यायः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
वसुधारण व रक्षो विनाश
पदार्थ
[१] (देवासः) = देववृत्ति के व्यक्ति (अग्रियम्) = मुख्य (वृत्रहन्तमम्) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को अधिक से अधिक विनष्ट करनेवाले (अग्निम्) = अग्रेणी प्रभु को (इन्धते) = अपने हृदय देश में समिद्ध करते हैं। उस देव के दर्शन के लिये देव बनना आवश्यक ही है। [२] उस प्रभु को ये समिद्ध करते हैं, (येन) = जिससे (वसूनि) = सब वसु [धन] (आभृता) = समन्तात् धारण किये जाते हैं। प्रभु के दर्शन से जीवन सब वसुओं से सम्पन्न बनता है। जिस (वाजिना) = शक्तिशाली प्रभु से (रक्षांसि तृढा) = सब राक्षसी भाव हिंसित होते हैं। प्रभु वसुओं को धारण कराते हैं, राक्षसी भावों को विनष्ट करते हैं। राक्षसीभाव वसुओं के विरोधी तत्त्व हैं। इन राक्षसी भावों से वसुओं का विनाश होता है।
भावार्थ
भावार्थ- देववृत्ति के बनते हुए हम प्रभु को हृदयदेश में देखने का प्रयत्न करें। प्रभु हमें वसुओं को प्राप्त कराके उत्तम निवासवाला बनायेंगे और हमारे राक्षसीभावों का विनाश करेंगे। अगले सूक्त में भरद्वाज बार्हस्पत्य 'इन्द्र' नाम से प्रभु का स्मरण करते हैं -
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे ऋत्विज यज्ञात वेदीवर अग्नी प्रज्वलित करून हवनाची सामग्री त्यात सोडतात व उपकार करतात तसे योगी, संन्यासी लोक परमात्म्याला सर्वांच्या हृदयात चांगल्या प्रकारे प्रकट करून दोषांचा नाश करतात. ॥ ४८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Thus do brilliant sages light the holy fire and worship Agni, leading light and pioneer, lord of action, foremost leader, highest breaker of the densest clouds and harbinger of the showers of generosity, who bears and brings for us the wealth and honours of the world and who, with his omnipotence, destroys the wicked hostilities of humanity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Something about God is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! as highly learned persons enkindle the fire, first in soul, slayer or dispeller of darkness and by its help, enkindle (earn) quickly or scientifically acquired wealth of various kinds and crush down the wicked persons, so having destroyed all evils and defects, they illuminate (reveal) God, so you should also do.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the priests kindle the fire in the alter, pour oblations and benefit the world, so the Yogi/Sanyasis illuminate God in the hearts of all and destroy their evils.
Foot Notes
(तृह्;ला) हिन्सितानि । तृह-हिन्सायाम् (रुधा०) = Destroyed, crushed. (वाजिना) वेगेन विज्ञानेन वा । वाज इति बलनाम (NG 2, 9) वज-गतौ गतेस्त्रिष्वर्थेष्वन ज्ञानार्थं ग्रहणम् पापा वै वृत्र: ( Stph 11, 1, 5, 7 ) पापा तमः (तैत्ति सं० 5, 1, 8, 6 कठ संहितापाद 31, 1) = Quickly or scientifically.
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