ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 4
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
त्वामी॑ळे॒ अध॑ द्वि॒ता भ॑र॒तो वा॒जिभिः॑ शु॒नम्। ई॒जे य॒ज्ञेषु॑ य॒ज्ञिय॑म् ॥४॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । ई॒ळे॒ । अध॑ । द्वि॒ता । भ॒र॒तः । वा॒जिऽभिः॑ । शु॒नम् । ई॒जे । य॒ज्ञेषु॑ । य॒ज्ञिय॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामीळे अध द्विता भरतो वाजिभिः शुनम्। ईजे यज्ञेषु यज्ञियम् ॥४॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम्। ईळे। अध। द्विता। भरतः। वाजिऽभिः। शुनम्। ईजे। यज्ञेषु। यज्ञियम् ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! यथाऽहं यज्ञेषु यज्ञियं त्वामीळेऽध द्विता भरतोऽहं वाजिभिः शुनमीजे तथा त्वं यज ॥४॥
पदार्थः
(त्वाम्) विद्वांसम् (ईळे) प्रशंसामि (अध) आनन्तर्य्ये (द्विता) द्वयोरध्यापकाध्येत्रोरुपदेष्ट्रुपदेश्ययोर्भावः (भरतः) धर्ता पोषकः (वाजिभिः) विज्ञानादिभिः (शुनम्) सुखम् (ईजे) यजामि (यज्ञेषु) सङ्गतिमयेषु (यज्ञियम्) यज्ञं कर्त्तुमर्हम् ॥४॥
भावार्थः
विद्वद्भिः परस्परैर्विद्योन्नतिं विधायाऽन्येभ्यो ग्राहयितव्या ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वन् ! जैसे मैं (यज्ञेषु) समागमरूप यज्ञों में (यज्ञियम्) यज्ञ करने योग्य (त्वाम्) आप विद्वान् की (ईळे) प्रशंसा करता हूँ (अध) इसके अनन्तर (द्विता) दो पढ़ाने और पढ़नेवाले वा उपदेश करने वा उपदेश पाने योग्यों का (भरतः) धारण और पोषण करनेवाला मैं (वाजिभिः) विज्ञानादिकों से (शुनम्) सुख की (ईजे) सङ्गति करता हूँ, वैसे आप सङ्गति कीजिये ॥४॥
भावार्थ
विद्वानों को चाहिये कि परस्पर विद्या की उन्नति करके अन्यों को ग्रहण करावें ॥४॥
विषय
उसकी सगुण निर्गुण उपासना के प्रकार ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) सर्वप्रकाशक ! ( भरतः ) मनुष्यमात्र ( शुनम् ) सुखप्रद, सर्वव्यापक ( त्वाम् ) तुझको ( द्विता ) अर्थात् सगुण और निर्गुण दोनों प्रकारों से ही ( वाजिभिः ) ज्ञानयुक्त उपायों से ( ईडे ) उपासना करे। और ( यज्ञेषु ) यज्ञों में ( यज्ञियम् ) पूज्य तुझ को ( ईजे ) प्राप्त होता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
ज्ञान, शक्ति व यज्ञों द्वारा प्रभु का उपासन
पदार्थ
[१] अब (द्विता) = ज्ञान व शक्ति का विस्तार करने के द्वारा [द्वौ तनोति] (भरतः) = अपना ठीक से पोषण करनेवाला मैं (वाजिभिः) = इन इन्द्रियाश्वों से (शुनम्) = आनन्दमय (त्वां ईडे) = आपका ही स्तवन करता हूँ। उपासक वही है जो ज्ञान व शक्ति के भरण के लिये यत्नशील होता है । [२] मैं (यज्ञियम्) = पूजनीय आपको (यज्ञेषु) = यज्ञों में श्रेष्ठतम कर्मों में (ईजे) = उपासित करता हूँ। 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः'।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का उपासन 'ज्ञान व शक्ति की प्राप्ति तथा यज्ञों' से होता है।
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वानांनी परस्पर विद्येची उन्नती करून इतरांना ग्रहण करवावी. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
I worship you, lord both immanent and transcendent, with all my knowledge, power and potential. You are the ordainer and sustainer of life. I pray for your gift of peace and well-being and yearn for your company, adorable lord, in the yajna of corporate action.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do is told further.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O enlightened person ! as I admire you who are fit to perform Yajnas (of all kinds) in the acts of noble association and being upholder and sustainer in two ways of the teacher and the taught, the preacher and the preached or audience, with knowledge etc., I unite men with happiness. So you should also unite them well.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of the enlightened persons to acquire knowledge and advance (promote) its cause by giving it to others.
Foot Notes
(द्विता ) द्वयोरध्यापकाध्येत्तोरुशकोपदेपदेश्ययोभविः । = The teachers and the taught and the preacher and the preached or audience. (भरत:) धर्त्ता-पोषकः । (डू) भृञ्-धारणपोषणयोः (जु०) = Upholder and supporter.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal