अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 16
ऋषिः - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - त्रिपदा प्रतिष्ठा गायत्री
सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त
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इन्द्रो॒ मेऽहि॑मरन्धयन्मि॒त्रश्च॒ वरु॑णश्च। वा॑तापर्ज॒न्यो॒भा ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । मे॒ । अहि॑म् । अ॒र॒न्ध॒य॒त् । मि॒त्र: । च॒ । वरु॑ण: । च॒ । वा॒ता॒प॒र्ज॒न्या᳡ । उ॒भा ॥४.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रो मेऽहिमरन्धयन्मित्रश्च वरुणश्च। वातापर्जन्योभा ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । मे । अहिम् । अरन्धयत् । मित्र: । च । वरुण: । च । वातापर्जन्या । उभा ॥४.१६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सर्प रूप दोषों के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(मित्रः) सूर्य [के समान] (च च) और (वरुणः) जल [के समान] और (उभा) दोनों (वातापर्जन्या) वायु और मेघ [के समान गुणवाले] (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवान् पुरुष ने (मे) मेरे लिये (अहिम्) महाहिंसक [सर्प] को (अरन्धयत्) मारा है ॥१६॥
भावार्थ
परोपकारी विद्वान् वैद्य संसार के उपकार के लिये विषैले जीवों को वश में करे ॥१६॥
टिप्पणी
१६−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् वैद्यः (मे) मह्यम् (अहिम्) म० १। महाहिंसकं सर्पम् (अरन्धयत्) म० १०। मारितवान् (मित्रः) प्रेरकः सूर्यो यथा (च) (वरुणः) जलवद् गुणकारी (वातापर्जन्या) वायुमेघौ यथा (उभा) द्वौ ॥
विषय
'इन्द्र, मित्र, वरुण, वात, पर्जन्यः'
पदार्थ
१. (इन्द्र) = जितेन्द्रियता की देवता (मे) = मेरी (अहिम्) = आहन्ति-कामवृत्ति को-ज्ञान पर पर्दे के रूप में आ जानेवाली वासना को (अरन्धयत्) = नष्ट करती है। इसी प्रकार (मित्राः च वरुण: च) = सबके प्रति स्नेह तथा निर्द्वषता की भावना मेरी इस वासना को नष्ट करती है। इसी प्रकार (उभा) = दोनों (वातापर्जन्या) = वात व पर्जन्य-क्रियाशीलता की देवता[वा गती] तथा सुखों को सिक्त करने की भावना [पृषु सेचने-उ०३।१०३] मेरे लिए वासना को विनष्ट करें।
भावार्थ
'जितेन्द्रियता, स्नेह की भावना, नि?षता, क्रियाशीलता व सुखसेचनवृत्ति' को धारण करते हुए हम वासना को विनष्ट करनेवाले बनें।
भाषार्थ
(इन्द्रः) विद्युत् ने (मित्रः च) और सूर्य ने (वरुणः च) और जल ने (वातापर्जन्या) वात और मेघ (उभा) इन दोनों ने, (मे) मेरे निवासस्थान से या मेरी सुरक्षा के लिये (अहिम्) सांप को (अरन्धयत्) रोंध डाला है।
टिप्पणी
[इन्द्रः = विद्युत् (मन्त्र १)। मित्राः= सूर्य; मिद् स्नेहने (भ्वादिः, चुरादिः, दिवादिः) अर्थात् वर्षाकारी श्रावण-भाद्रपद का सूर्य। वरुणः = जल "वरुणोऽपामधिपतिः " (अथर्व० ५।२४।४)। तथा "मित्रावरुणा वृष्ट्याधिपती (५।२४।५)। वातापर्जन्यौ= मानसून वायु और मेघ। मन्त्र में इन्द्रादि के सहयोग द्वारा वर्षाकाल को सूचित किया है। वर्षाकाल में सांपों का अधिक संचार होता है। अतः इस काल में प्रकट हुए सांपों को दण्ड आदि द्वारा मार देना सुलभ होता है। वातापर्जन्य = पर्जन्य सहयोगी वात, मानसून ही सम्भव है। विशेष वक्तव्य = वातापर्जन्या, मित्रावरुणा, अग्नीषोमा आदि वैदिक प्रयोगों में पूर्वपद तथा उत्तरपद दोनों द्विवचनान्त प्रतीत होते हैं,– यह वैदिक प्रथा है। अष्टाध्यायी में लौकिकसंस्कृत की प्रथानुसार "आनङ्” और “ईत्” का विधान किया है (अष्टा० ६।३।२६; ६।३।२७)]।
विषय
सर्प विज्ञान और चिकित्सा।
भावार्थ
(इन्द्रः) इन्द्र नामक ओषधि या विद्युत् (मित्रः च) मित्र, सूर्य और (वरुणः च) वरुण, जल, (वातापर्जन्या) वात, प्रचण्ड वायु और (पर्जन्य) मेघ (उभा) ये दोनों भी (अहिम् अरन्धयत्) सर्प को (मे) मेरे लिये वश करते हैं।
टिप्पणी
‘इन्द्रो मेहीनजम्भयत्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। गरुत्मान् तक्षको देवता। २ त्रिपदा यवमध्या गायत्री, ३, ४ पथ्या बृहत्यौ, ८ उष्णिग्गर्भा परा त्रिष्टुप्, १२ भुरिक् गायत्री, १६ त्रिपदा प्रतिष्ठा गायत्री, २१ ककुम्मती, २३ त्रिष्टुप्, २६ बृहती गर्भा ककुम्मती भुरिक् त्रिष्टुप्, १, ५-७, ९, ११, १३-१५, १७-२०, २२, २४, २५ अनुष्टुभः। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Snake poison cure
Meaning
Indra, lightning and electric energy, Mitra, the sun, Varuna, water, wind and cloud, these have cast away and destroyed the snakes for my protection.
Translation
The resplendent Lord, the friendly Lord, the venerable Lord, and both the blower (vata) and the showerer (parjanya), have put the serpent in my power.
Translation
Indra, the electricity; Mitra, the Sun; Varuna, the water; and both of the wind and cloud destroy the snake for my well-being.
Translation
A majestic physician, urging like the Sun, serviceable like water, and both water and cloud has slain the serpent approaching me.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१६−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् वैद्यः (मे) मह्यम् (अहिम्) म० १। महाहिंसकं सर्पम् (अरन्धयत्) म० १०। मारितवान् (मित्रः) प्रेरकः सूर्यो यथा (च) (वरुणः) जलवद् गुणकारी (वातापर्जन्या) वायुमेघौ यथा (उभा) द्वौ ॥
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