अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 3
ऋषिः - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - पथ्याबृहती
सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त
23
अव॑ श्वेत प॒दा ज॑हि॒ पूर्वे॑ण॒ चाप॑रेण च। उ॑दप्लु॒तमि॑व॒ दार्वही॑नामर॒सं वि॒षं वारु॒ग्रम् ॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । श्वे॒त॒ । प॒दा । ज॒हि॒ । पूर्वे॑ण । च॒ । अप॑रेण । च॒ । उ॒दप्लु॒तम्ऽइ॑व । दारु॑ । अही॑नाम् । अ॒र॒सम् । वि॒षम् । वा: । उ॒ग्रम् ॥४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अव श्वेत पदा जहि पूर्वेण चापरेण च। उदप्लुतमिव दार्वहीनामरसं विषं वारुग्रम् ॥
स्वर रहित पद पाठअव । श्वेत । पदा । जहि । पूर्वेण । च । अपरेण । च । उदप्लुतम्ऽइव । दारु । अहीनाम् । अरसम् । विषम् । वा: । उग्रम् ॥४.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सर्प रूप दोषों के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(श्वेत) हे प्रवृद्ध [मनुष्य !] तू (पूर्वेण) अगले (च च) और (अपरेण) पिछले (पदा) पाद [पैर की चोट] से (अव जहि) मार डाल। (उदप्लुतम्) जल में बही हुई (दारु इव) लकड़ी के समान (अहीनाम्) सर्पों का (उग्रम्) क्रूर (वाः) जल [अर्थात्] (विषम्) विष (अरसम्) नीरस होवे ॥३॥
भावार्थ
राजा के प्रबन्ध से दुष्ट लोग ऐसे निर्बल हो जावें, जैसे उत्तम वैद्य के प्रयत्न से विष निकम्मा हो जाता है, जैसे लकड़ी जल में बहती-बहती गलकर सारहीन हो जाती है ॥३॥
टिप्पणी
३−(श्वेत) हसिमृग्रिण्० उ० ३।८६। टुओश्वि गतिवृद्ध्योः-तन्। हे प्रवृद्ध। मनुष्य (पदा) पादेन (अव जहि) विनाशय (पूर्वेण) अग्रभागेन (च) (अपरेण) पश्चाद् भागेन (उदप्लुतम्) जले सृप्तम् (इव) (दारु) काष्ठम् (अहीनाम्) म० १। सर्पाणाम् (अरसम्) सारहीनम् (विषम्) गरलम् (वाः) जलम् (उग्रम्) क्रूरम् ॥
विषय
श्वेत: अरंधुशः अ
पदार्थ
१. हे (श्वेत) = शुद्ध आचरणवाले पुरुष! तू (पूर्वेण च अपरेण च पदा) = [पद गतौ, गतिर्ज्ञानम्] पूर्व तथा अपर ज्ञान के द्वारा-आत्मतत्त्व तथा प्रकृति के ज्ञान के द्वारा-परा व अपरा विद्या के द्वारा (अवजहि) = सब बुराइयों को दूर फेंकनेवाला हो, (इव) = जैसे (उदप्लुतम्) = पानी से आप्लुत [flooded, filled with] (दारु) = लकड़ी (अरसम्) = निर्बल हो जाती है, इसी प्रकार हम जब ज्ञान प्राप्त करते हैं तब हमारे लिए (अहीनाम्) = [आहन्तुणाम्] हिंसकों का (विरषम्) = [अरसम्]-विष शक्तिशून्य हो जाता है। ज्ञानी पर हिंसकों के विषले प्रहारों का प्रभाव नहीं होता। उसका (वा:) = यह ज्ञान जल (उग्रम्) = तेजस्वी होता है-यह बुराई को धो डालने में समर्थ होता है। २. (अरंधुषः) = प्रभु के स्तोत्रों व ज्ञानवाणियों का खूब उच्चारण करनेवाला यह पुरुष (निमज्य उन्मज्य) = बारम्बार इन स्तोत्रों व ज्ञानवाणियों में डुबकी लगाकर (पुन:) = फिर (अब्रवीत) = कहता है कि ज्ञान होने पर गीली लकडी के समान हिंसकों के विषैले प्रहार निर्बल हो जाते हैं। तेजस्वी ज्ञान-जल सब विर्षों को प्रभावशून्य कर देता है।
भावार्थ
हम परा व अपरा विद्या का अर्जन करके जीवन को अति शुद्ध बनाएँ। प्रभु के स्तोत्रों के जलों व ज्ञान-जलों में खुब ही स्नान करनेवाले बनें। ऐसा करने पर हम हिंसकों के विषैले प्रहारों से आहत न होंगे। हमारा तेजस्वी ज्ञान-जल विष को धो डालने में समर्थ होगा।
भाषार्थ
(श्वेत) हे श्वेत ! (पूर्वेण च) पूर्व के (अपरेण च) और अपर के (पदा) पैर द्वारा (अव जहि) विष को मार डाल। (उदप्लुतम्) जल पर प्लुतियां करती हुईं, तैरती हुई (दारु इव) लकड़ी की तरह (अहीनाम्) सांपों का (विषम्) विष (अरसम्) रस रहित हो गया है, (उग्रम्) उग्र विष (वाः) साधारण उदक हो गया हैं ।
टिप्पणी
["श्वेत" पद द्वारा श्वेत पुनर्नवा" तथा "श्वेत सर्षप" का ग्रहण सम्भाव्य है। मन्त्र में इन दो ओषधियों में समान पद ''श्वेत" द्वारा इन दो को सूचित किया है। (देखो विषाधिकार में तथा सर्पदष्ट चिकित्सा में श्वेत पुनर्नवा का योग, चक्रदत्त)। पुनर्नवा योग में "श्वेत पुनर्नवा" की जड़ के चूर्ण को तण्डुल जल के साथ पीने का विधान चक्रदत्त में हुआ है; तथा शिरीष अर्थात् सिरसा के फूलों के रस के साथ श्वेत सर्षप (श्वेत सरसों) के चूर्ण के पान, नस्य, तथा अञ्जन का भी विधान हुआ है। व्याख्येय मन्त्र में ‘‘पदा” द्वारा "श्वेत" की जड़ सूचित की है। वृक्षों और औषधियों को "पादप" कहते हैं। पादप का अर्थ है पादों अर्थात् जड़ों द्वारा जल को पीने वाले। अतः मन्त्रस्थ "पदा" द्वारा जड़ का ही ग्रहण सम्भावित है। "पदा” के विशेषण हैं "पूर्वेण च, अपरेण च”। अतः “श्वेत” ओषधियों की पूर्व दिशोन्मुख तथा पश्चिम दिशोन्मुख जड़ों का ग्रहण करना चाहिये, उत्तर दिशास्थ तथा दक्षिणदिशास्थ जड़ों का ग्रहण नहीं करना चाहिये। सूर्य पूर्व में उदय होता और पश्चिम में अस्त होता है। दोनों अवस्थाओं में सूर्य की लाल किरणों का प्रभाव, पूर्व दिशास्थ तथा पश्चिम् दिशास्थ जड़ों पर विशेष रूप से पड़ कर इन में विशिष्ट गुणों का आधान करता है। उदयकालीन तथा अस्तगामी सूर्य की किरणों में रोगनाशादि की विशेष शक्ति होती है, देखो (अर्थव० का० २।३२।१)। “श्वेत” का सम्बोधन कविता की दृष्टि से है। इस सूक्त में विषयों का वर्णन बहुधा कवितारूप में हुआ है। इसलिये सायणाचार्य ने भी इस सूक्त को "कविवाग्विषयः" कहा है (अथर्व० १०।४।१-२६), सम्बन्धी विनियोग]
विषय
सर्प विज्ञान और चिकित्सा।
भावार्थ
हे (श्वेत) श्वेत करवीर अश्वक्षुरक नाम ओषधे ! (वाः) जल जिस प्रकार (उदप्लुतम्) जलमें उतराती हुई (दारू) लकड़ी को (अरसम्) निर्बल और नीरस करके विनष्ट कर देता है उसी प्रकार (पूर्वेण) पूर्व के और (अपरेण च) अपर के (पदा) पाद, फूल और मूल से (अहीनां) सांपों के (उग्रम्) तीव्र (विषम्) विष को (अरसम्) निर्बल करके (अव जहि) विनाश कर।
टिप्पणी
(च०) ‘वारिदुग्रम्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। गरुत्मान् तक्षको देवता। २ त्रिपदा यवमध्या गायत्री, ३, ४ पथ्या बृहत्यौ, ८ उष्णिग्गर्भा परा त्रिष्टुप्, १२ भुरिक् गायत्री, १६ त्रिपदा प्रतिष्ठा गायत्री, २१ ककुम्मती, २३ त्रिष्टुप्, २६ बृहती गर्भा ककुम्मती भुरिक् त्रिष्टुप्, १, ५-७, ९, ११, १३-१५, १७-२०, २२, २४, २५ अनुष्टुभः। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Snake poison cure
Meaning
O Shveta herb, with the first and last part of the root, let the flow of dangerous poison be ineffective like sapless wood floating on water.
Translation
O white horse, smite with your foot, with the fore foot and with the hind foot also. May you stay the strong poison of snakes and make it weak like a wood soaked in water.
Translation
Let this Shveta, the Ashvagandha or Karvira herb making ineffectual strike out the fatal poison of serpents with root and branch as the water washes away the floating wood.
Translation
O shweta medicine, just as water weakens the piece of wood that floats on it so do thou stay the dire poison of the snakes, and make it weak.
Footnote
श्वत is the name of a medicine.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(श्वेत) हसिमृग्रिण्० उ० ३।८६। टुओश्वि गतिवृद्ध्योः-तन्। हे प्रवृद्ध। मनुष्य (पदा) पादेन (अव जहि) विनाशय (पूर्वेण) अग्रभागेन (च) (अपरेण) पश्चाद् भागेन (उदप्लुतम्) जले सृप्तम् (इव) (दारु) काष्ठम् (अहीनाम्) म० १। सर्पाणाम् (अरसम्) सारहीनम् (विषम्) गरलम् (वाः) जलम् (उग्रम्) क्रूरम् ॥
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