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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 23
    ऋषिः - गरुत्मान् देवता - तक्षकः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त
    19

    ये अ॑ग्नि॒जा ओ॑षधि॒जा अही॑नां॒ ये अ॑प्सु॒जा वि॒द्युत॑ आबभू॒वुः। येषां॑ जा॒तानि॑ बहु॒धा म॒हान्ति॒ तेभ्यः॑ स॒र्पेभ्यो॒ नम॑सा विधेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । अ॒ग्नि॒:ऽजा: । ओ॒ष॒धि॒ऽजा: । अही॑नाम् । ये । अ॒प्सु॒ऽजा: । वि॒ऽद्युत॑: । आ॒ऽब॒भू॒वु: । येषा॑म् । जा॒तानि॑ । ब॒हु॒ऽधा । म॒हान्ति॑ । तेभ्य॑: । स॒र्पेभ्य॑: । नम॑सा । वि॒धे॒म॒ ॥४.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये अग्निजा ओषधिजा अहीनां ये अप्सुजा विद्युत आबभूवुः। येषां जातानि बहुधा महान्ति तेभ्यः सर्पेभ्यो नमसा विधेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । अग्नि:ऽजा: । ओषधिऽजा: । अहीनाम् । ये । अप्सुऽजा: । विऽद्युत: । आऽबभूवु: । येषाम् । जातानि । बहुऽधा । महान्ति । तेभ्य: । सर्पेभ्य: । नमसा । विधेम ॥४.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 23
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    हिन्दी (3)

    विषय

    सर्प रूप दोषों के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (अहीनाम्) सर्पों में से (ये) जो (अग्निजाः) अग्नि में उत्पन्न, (ओषधिजाः) ओषधियों [अन्न आदि में उत्पन्न], (ये) जो (अप्सुजाः) जल में उत्पन्न होकर (विद्युतः) बिजुलियों [समान] (आबभूवुः) सब ओर हुए हैं। (येषाम्) जिनके (जातानि) समूह (बहुधा) बहुधा [नाना प्रकार से] (महान्ति) बड़े-बड़े हैं, (तेभ्यः सर्पेभ्यः) उन सर्पों के [नाश के] लिये (नमसा) वज्र से (विधेम) हम शासन करें ॥२३॥

    भावार्थ

    मनुष्य अग्नि आदि पदार्थों में से सर्परूप हानिकारक अवगुणों का नाश करके स्वास्थ्य बढ़ावें ॥२३॥

    टिप्पणी

    २३−(ये) अहयः (अग्निजाः) अग्नौ जाताः (ओषधिजाः) ओषधिषु जाताः (अहीनाम्) सर्पाणां मध्ये (ये) (अप्सुजाः) जलजाताः (विद्युतः) तडितो यथा (आबभूवुः) समन्तात्प्रादुर्बभूवुः (येषाम्) (जातानि) वृन्दानि (बहुधा) नानाप्रकारेण (महान्ति) विशालानि (तेभ्यः) (सर्पेभ्यः) सर्पान् नाशयितुम् (नमसा) वज्रेण (विधेम) विध विधाने=शासने-लिङ्। शासनं कुर्याम ॥

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    विषय

    विद्युतः [अग्रिजाः, ओषधिजाः, अप्सुजाः]

    पदार्थ

    १. 'अहि' शब्द सर्प का वाचक है-यह 'आहन्ति'-विनाश कर देता है। इसी प्रकार हिंसन करनेवाले व्यक्ति भी 'अहि' हैं। 'अग्निजा:' वे व्यक्ति हैं जोकि 'अग्नौ जाता:' अग्नि का ही मानो अनुभव लेने के लिए उत्पन्न हुए हैं और अग्निविद्या में निपुण होकर बम्ब आदि घातक शस्त्रों के निर्माण में लगे हैं। इसी प्रकार ओषधिजा:' वे हैं, जोकि नाना प्रकार की ओषधियों के प्रयोग में निपुण हैं, परन्तु वे इसप्रकार की ओषधियों के निर्माण में प्रवृत्त हैं, जिनके प्रयोग से मनुष्य बिना किन्हीं भौतिक कष्टों का अनुभव किये बिलासमय जीवन बिता पाता है। इसी प्रकार अप्सुजा:'वे हैं जोकि जलों की विद्या में निपुण होकर युद्धपोतों व पनडुब्बियों के बनाने में लगे हैं। ये सब (विद्युतः) = विशिष्ट ज्ञानज्योति-झुतिवाले तो हैं ही। २. अत: मन्त्र में कहते हैं कि (ये) = जो (अहीनाम्) = हिंसकवृत्तिवाले पुरुषों में (अग्रिजा: ओषधिजा:) = अग्निविद्या व ओषधिविज्ञान में निपुण हैं, ये अप्सजा:-जो जलविद्या में निपुण होते हुए विद्युतः-विशिष्ट द्युतिवाले वैज्ञानिक आबभूवुः बने हैं, येषाम्-जिनके बहुधा-बहुत प्रकार से महान्ति-महान् आश्चर्यजनक कर्म जातानि हुए है-एक ही बम्ब से लाखों का विनाश आदि कर्म प्रकट हुए हैं, तेभ्यः-उन सर्पेभ्यः कुटिलवत्तिवाले विनाशक पुरुषों के लिए नमसा विधेम-दूर से ही नमन द्वारा पूजा करते हैं- इन्हें दूर से ही नमस्कार करते हैं। प्रभुकृपा से हम इन व्यक्तियों से बचे ही रहें।

    भावार्थ

    जो वैज्ञानिक 'अग्नि, ओषधि व जलों' की विद्याओं में निपुण होकर विनाशक शस्त्रास्त्रों को तैयार कर रहे हैं, जिनके 'लाखों का विनाश' आदि भयंकर कर्म हमारे सामने हैं, उन कुटिलवृत्तिबाले, विशिष्ट द्युतिवाले वैज्ञानिकों के लिए हम दूर से ही नमस्कार करते हैं।

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    भाषार्थ

    (अहीनाम्) सांपों में (ये) जो (अग्निजाः) अग्निप्रधान प्रदेशों में उत्पन्न हैं, (ओषधिजाः) ओषधिप्रधान प्रदेशों [वृक्षों, ओषधियों, वनों] में उत्पन्न हैं, (ये) जो (अप्सुजा विद्युतः) जलों में पैदा हुई बिजुलियों के सदृश अतितीक्ष्ण स्वभाव वाले (आ बभूवुः) हुए हैं। (येषाम्) जिन की (जातानि) जातियां (बहुधा) बहुत प्रकार की (महान्ति) और बड़ी हैं, (तेभ्यः सर्पेभ्यः) उन सर्पों के लिये (नमसा विधेम) हम दूरतः नमस्कार करते हैं, अथवा वज्र द्वारा सत्कार करते हैं। अप्सुजाः= अथवा जलोत्पन्न, तथा विद्युतः अर्थात् विद्युत् के सदृश विषवज्र का प्रहार करने वाले सांप। नमसा= "नमः वज्रनाम" (निघं० २।२०)]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Snake poison cure

    Meaning

    Many and great are the species of snakes, those that are born in hot regions and carry burning poison, those born and living in herbs and trees, those that are born and live in waters, and those which are stunning poisonous and strike as lightning. All these snakes we deal with as they deserve.

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    Translation

    We bow in reverence to those of the serpents, which are born from fire, from plants, which are born in waters and those which have sprung from the lightning; to these whose broods (jatani) are very large in number.

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    Translation

    Let us treat with anti-venomous measure against those snakes which are born from heat and various plants, which are born in water, which are generated by lightening and the progeny of which is plentiful and abundants.

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    Translation

    Serpents which fire or plants have generated, those which have sprung from waters or the lightning, whose mighty broods are found in many places, these serpents we control with a destructive weapon.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २३−(ये) अहयः (अग्निजाः) अग्नौ जाताः (ओषधिजाः) ओषधिषु जाताः (अहीनाम्) सर्पाणां मध्ये (ये) (अप्सुजाः) जलजाताः (विद्युतः) तडितो यथा (आबभूवुः) समन्तात्प्रादुर्बभूवुः (येषाम्) (जातानि) वृन्दानि (बहुधा) नानाप्रकारेण (महान्ति) विशालानि (तेभ्यः) (सर्पेभ्यः) सर्पान् नाशयितुम् (नमसा) वज्रेण (विधेम) विध विधाने=शासने-लिङ्। शासनं कुर्याम ॥

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