अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 16/ मन्त्र 10
हि॒मेव॑ प॒र्णा मु॑षि॒ता वना॑नि॒ बृह॒स्पति॑नाकृपयद्व॒लो गाः। अ॑नानुकृ॒त्यम॑पु॒नश्च॑कार॒ यात्सूर्या॒मासा॑ मि॒थ उ॒च्चरा॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठहि॒माऽइ॑व । प॒र्णा । मु॒षि॒ता । वना॑नि । बृह॒स्पति॑ना । अ॒कृ॒प॒य॒त् । व॒ल: । गा: ॥ अ॒न॒नु॒ऽकृ॒त्यम् । अ॒पु॒नरिति॑ । च॒का॒र॒ । यात् । सूर्या॒मासा॑ । मि॒थ: । उ॒त्ऽचरा॑त: ॥१६.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
हिमेव पर्णा मुषिता वनानि बृहस्पतिनाकृपयद्वलो गाः। अनानुकृत्यमपुनश्चकार यात्सूर्यामासा मिथ उच्चरातः ॥
स्वर रहित पद पाठहिमाऽइव । पर्णा । मुषिता । वनानि । बृहस्पतिना । अकृपयत् । वल: । गा: ॥ अननुऽकृत्यम् । अपुनरिति । चकार । यात् । सूर्यामासा । मिथ: । उत्ऽचरात: ॥१६.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(हिमा इव) हेमन्त ऋतु द्वारा जैसे (वनानि) वनों के (पर्णा=पर्णानि) पत्ते (मुषिता=मुषितानि) मानो लूट लिए जाते हैं, वैसे (बृहस्पतिना) वायु ने (वलः=वलस्य) घेरा डालनेवाले मेघ के (गाः) जलों को (अकृपयत्) लूटकर उनपर मानो कृपा की। मेघ को वायु ने (अनानुकृत्यम्) घेरा डालने के कर्म को न कर सकने योग्य, और (अपुनः) पुनः घेरा डालने के अयोग्य (चकार) कर दिया। (यात्) तब से (सूर्यमासा=सूर्यामासौ) सूर्य और चन्द्रमस् (मिथः) साथ-साथ (उत् चरातः) आकाश में फिर उदित होने लगते हैं।
टिप्पणी -
[वलः=वल्+क्विप्+षष्ठ्येकवचन। सूर्यमासा=सूर्य और मस् (=चन्द्रमस्)। आधिभौतिक में सेनापति जब घेरा डालनेवाले शत्रुओं की भूमियाँ जीत लेता है, तब वह उन्हें कठोर दण्ड न देकर उन पर कृपा दर्शाता है। तदनन्तर शत्रु पुनः आक्रमण कार्य न कर सकें, उन्हें ऐसा कर दिया जाता है। अर्थात् उन्हें शस्त्रास्त्रों से वञ्चित कर दिया जाता है। मन्त्र में वर्षाकाल की समाप्ति का वर्णन हुआ है।