अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 16/ मन्त्र 2
सं गोभि॑रङ्गिर॒सो नक्ष॑माणो॒ भग॑ इ॒वेद॑र्य॒मणं॑ निनाय। जने॑ मि॒त्रो न दम्प॑ती अनक्ति॒ बृह॑स्पते वा॒जया॒शूँरि॑वा॒जौ ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । गोभि॑: । आ॒ङ्गि॒र॒स: । नक्ष॑माण: । भग॑:ऽइव । इत् । अ॒र्य॒मण॑म् । नि॒ना॒य॒ ॥ जने॑ । मि॒त्र: । न । दम्प॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती । अ॒न॒क्ति॒ । बृह॑स्पते । वा॒जय॑ । आ॒शून्ऽइ॑व । आ॒जौ ॥१६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सं गोभिरङ्गिरसो नक्षमाणो भग इवेदर्यमणं निनाय। जने मित्रो न दम्पती अनक्ति बृहस्पते वाजयाशूँरिवाजौ ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । गोभि: । आङ्गिरस: । नक्षमाण: । भग:ऽइव । इत् । अर्यमणम् । निनाय ॥ जने । मित्र: । न । दम्पती इति दम्ऽपती । अनक्ति । बृहस्पते । वाजय । आशून्ऽइव । आजौ ॥१६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(आङ्गिरसः) प्राणायामाभ्यासी उपासक, (गोभिः) वेदवाणियों द्वारा (नक्षमाणः) प्रगति करता हुआ, (अर्यमणम्) कामादि अरियों को नियन्त्रण करनेवाले परमेश्वर को अपनी ओर (सं निनाय) सम्यक् प्रकार से झुका लेता है, (इव) जैसे कि (भगः) भगवान् ने (अर्यमणम्) अन्धकाररूपी-अरि को नियमन करनेवाले आदित्य को (सं निनाय) हमारी ओर झुकाया हुआ है। (जने) जन-समुदाय में (न) जैसे (मित्रः) मित्र (दम्पती) नवविवाहित पति-पत्नी के गुणों को (अनक्ति) अभिव्यक्ति करता है वैसे ही प्राणायामाभ्यासी योगी, परमेश्वर के गुणों को जन समुदाय में अभिव्यक्त करता रहता है। और प्रार्थना करता है कि (बृहस्पते) हे महाब्रह्माण्ड के पति! (वाजय) हम सबको बल प्रदान कीजिए, और प्रगतिशील कीजिए। (इव) जैसे कि बृहती सेना का पति (आजौ) युद्ध में (अशून्) शीघ्रगामी अश्वों को प्रगतिशील करता है।
टिप्पणी -
[नक्ष्=गति, प्रगति। आङ्गिरसः, अङ्गिरा=प्राण (श০ ब्रा০ ६.१.२.४)। अर्यमा=आदित्यः, अरीन् नियच्छति (निरु০ ११.३.२३)। अर्यमा=परमेश्वर; कामादिकान् अरीन् नियच्छति)। आशुः=अश्वः (निघं০ १.१४)।]