अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 16/ मन्त्र 8
अश्नापि॑नद्धं॒ मधु॒ पर्य॑पश्य॒न्मत्स्यं॒ न दी॒न उ॒दनि॑ क्षि॒यन्त॑म्। निष्टज्ज॑भार चम॒सं न वृ॒क्षाद्बृह॒स्पति॑र्विर॒वेणा॑ वि॒कृत्य॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअश्ना॑ । अपि॑ऽनद्धम् । मधु॑ । परि॑ । अ॒प॒श्य॒त । मत्स्य॑म् । न । दी॒ने । उ॒द॑नि । क्षि॒यन्त॑म् ॥ नि: । तत् । ज॒भा॒र॒ । च॒म॒सम् । न । वृ॒क्षात् । बृह॒स्पति॑: । वि॒ऽर॒वेण॑ । वि॒ऽकृत्य॑ ॥१६.८॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्नापिनद्धं मधु पर्यपश्यन्मत्स्यं न दीन उदनि क्षियन्तम्। निष्टज्जभार चमसं न वृक्षाद्बृहस्पतिर्विरवेणा विकृत्य ॥
स्वर रहित पद पाठअश्ना । अपिऽनद्धम् । मधु । परि । अपश्यत । मत्स्यम् । न । दीने । उदनि । क्षियन्तम् ॥ नि: । तत् । जभार । चमसम् । न । वृक्षात् । बृहस्पति: । विऽरवेण । विऽकृत्य ॥१६.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(बृहस्पतिः) बृहती-पृथिवी के अधिपति वायु ने (अश्ना पिनद्धम्) मेघ से बन्धे पड़े (मधु) मधुर-जल को (पर्यपश्यत्) जान लिया। (न) जैसे कि (दीने उदनि) अल्प जल में (क्षियन्तम्) पड़ी (मत्स्यम्) मछली को जान लिया जाता है। वायु ने (विरवेण) विशेष गरजनावाले विद्युद्-वज्र के द्वारा (विकृत्य) मेघ को काट कर (तत्) उस मधुर-जल को (निर् जभार) निकाल लिया। (न) जैसे कि बढ़ई (वृक्षात्) वृक्ष को काट कर उससे (चमसम्) खान-पान के बर्तन निकला लेता है, बना लेता है।
टिप्पणी -
[वायु यद्यपि जड़ है, तो भी वायु का वर्णन हुआ है मानो वह चेतन है। कवि सम्प्रदाय में जड़ वस्तु का भी वर्णन चेतनवत् किया जाता है। वेदो में परमेश्वर को कवि कहा है। यथा—“कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूः” (यजुः০ ४०.८)। तथा वेद को काव्य कहा है, यथा—“देवस्य पश्य काव्यम्” (अथर्व০ १०.८.३२)। निरुक्तकार ने भी कहा है। यथा—“अचेतनान्यप्येवं स्तूयन्ते यथाक्षप्रभृतीन्योषधिपर्यन्तानि” (७.२.७) इत्यादि। आधिभौतिक दृष्टि में सेनापति ने फैली हुई पर्वतश्रेणी में बन्धे पड़े मधुर-जल के स्रोत को देखा, और विद्युद्-वज्र के द्वारा पर्वतों को काट कर नदीरूप में या नहर के रूप में उस बन्धे जल को अपने राष्ट्र में प्राप्त कर लिया।