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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 16

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 16/ मन्त्र 4
    सूक्त - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१६

    आ॑प्रुषा॒यन्मधु॑ना ऋ॒तस्य॒ योनि॑मवक्षि॒पन्न॒र्क उ॒ल्कामि॑व॒ द्योः। बृह॒स्पति॑रु॒द्धर॒न्नश्म॑नो॒ गा भूम्या॑ उ॒द्नेव॒ वि त्वचं॑ बिभेद ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽप्रु॒षा॒यन् । मधु॑ना । ऋ॒तस्य॑ । योनि॑म् । अ॒व॒ऽक्षि॒पन् ।अ॒र्क: । उ॒ल्काम्ऽइ॑व । द्यौ: ॥ बृह॒स्पति॑: । उ॒द्धर॑न् । अश्म॑न: । गा: । भूम्या॑: । उ॒द्नाऽइ॑व । वि । त्वच॑म् । बि॒भे॒द॒ ॥१६.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आप्रुषायन्मधुना ऋतस्य योनिमवक्षिपन्नर्क उल्कामिव द्योः। बृहस्पतिरुद्धरन्नश्मनो गा भूम्या उद्नेव वि त्वचं बिभेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽप्रुषायन् । मधुना । ऋतस्य । योनिम् । अवऽक्षिपन् ।अर्क: । उल्काम्ऽइव । द्यौ: ॥ बृहस्पति: । उद्धरन् । अश्मन: । गा: । भूम्या: । उद्नाऽइव । वि । त्वचम् । बिभेद ॥१६.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 4

    भाषार्थ -
    (आ प्रुषायन्) पृथिवी को सम्यक् रूप से जल द्वारा स्निग्ध करते हुए (बृहस्पतिः) बृहस्पति ने (मधुनः) मधुर (ऋतस्य) जल के (योनिम्) उत्पादक मेघ को (अवक्षिपन्) नीचे पृथिवी पर ऐसे फैंका, (इव) जैसे कि (अर्कः) सूर्य (द्योः) द्युतिमान् आकाश से या द्युलोक से (उल्काम्) दधकते पत्थर को फैंकता है। तथा (अश्मनः) आकाश में फैले मेघ से (गाः) जलों का (उद्धरन्) उद्धार करते हुए बृहस्पति अर्थात् वायु ने (त्वचम्) मेघ की त्वचा को (बिभेद) काट दिया। (इव) जैसे (उद्नः) जल (भूम्याः) भूमि की, (त्वचम्) त्वचा को, ऊपर के स्तर को (वि बिभेद) काट देता है।

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