यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 24
ऋषिः - भरद्वाज ऋषिः
देवता - विश्वेदेवा देवताः
छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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मू॒र्द्धानं॑ दि॒वोऽअ॑र॒तिं पृ॑थि॒व्या वै॑श्वान॒रमृ॒तऽआ जा॒तम॒ग्निम्। क॒विꣳ स॒म्राज॒मति॑थिं॒ जना॑नामा॒सन्ना पात्रं॑ जनयन्त दे॒वाः॥२४॥
स्वर सहित पद पाठमू॒र्द्धान॑म्। दि॒वः। अ॒र॒तिम्। पृ॒थि॒व्याः। वै॒श्वा॒न॒रम्। ऋ॒ते। आ। जा॒तम्। अ॒ग्निम्। क॒विम्। स॒म्राज॒मिति॑ स॒म्ऽराज॑म्। अति॑थिम्। जना॑नाम्। आ॒सन्। आ। पात्र॑म्। ज॒न॒य॒न्त॒। दे॒वाः ॥२४॥
स्वर रहित मन्त्र
मूर्धानन्दिवोऽअरतिं पृथिव्या वैश्वानरमृत आ जातमग्निम् । कविँ सम्राजमतिथिञ्जनानामासन्ना पात्रञ्जनयन्त देवाः ॥
स्वर रहित पद पाठ
मूर्द्धानम्। दिवः। अरतिम्। पृथिव्याः। वैश्वानरम्। ऋते। आ। जातम्। अग्निम्। कविम्। सम्राजमिति सम्ऽराजम्। अतिथिम्। जनानाम्। आसन्। आ। पात्रम्। जनयन्त। देवाः॥२४॥
विषय - अब विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश किया जाता है ।।
भाषार्थ -
जैसे (देवाः) धनुर्वेद के वेत्ता विद्वान् लोग धनुर्वेद की शिक्षा से (दिव:) प्रकाशमान सूर्य के (मूर्द्धानम्) शिर के समान, (पृथिव्या) पृथिवी को (अरतिम्) प्राप्त होने वाले, (ऋते) सत्य में (आ+जातम्) चहुँ ओर प्रसिद्ध, (वैश्वानरम्) सब नरों को आनन्द पहुँचाने वाले, (जनानाम्) सत्पुरुषों के (अतिथिम्) अतिथि के समान पूज्य, (आसन्) मुख्य रूप में (पात्रम्) समस्त शिल्पव्यवहारों को रखने वाले, (कविम्) आर-पार देखने के साधन (अग्निम् ) शुभ गुणों से प्रकाशमान भौतिक अग्नि को (सम्राजमिव) चक्रवर्ती सम्राट् के समान (अर+जनयन्त) उत्पन्न करें, वैसे सब लोग उनका अनुकरण करें ।। ७ । २४ ।।
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार है।। जैसे सत्पुरुष, धनुर्वेद के जानने वाले, परोपकारी विद्वान् लोग धनुर्वेद में प्रतिपादित कियाओं से यानों में तथा शस्त्र-अस्त्र विद्या की सिद्धि में अनेक बार अग्नि को प्रदीप्त कर शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते हैं वैसे अन्य सब लोग भी आचरण करें ।। ७ । २४ ।।
प्रमाणार्थ -
(वैश्वानरम्) निरु० (७ । २१) में वैश्वानर की व्याख्या इस प्रकार की है–-‘वैश्वानर' विद्वान को 'वैश्वानर' क्यों कहते हैं ? इसलिए कि वह सब नरों को आनन्द पहुँचाता है और सभी नर इस वैश्वानर को ले जाते हैं अथवा विश्वानर ही वैश्वानर है । (ऋते) 'ऋत' शब्द निघं० (३ । १०) में सत्य-नामों में पढ़ा है। (आसन्) यहाँ'आस्य' शब्द को 'पद्दन्नोमास०' (अ० ६ । १ । ६३) इस सूत्र से 'आसन्' आदेश और 'सुपां सुलुक्०' (७ । १ । ३९) इस सूत्र से सप्तमी के एक वचन का लुक है। (जनयन्त) उत्पादयन्तु । यहाँ लोट् अर्थ में लङ् लकार और अट् का अभाव है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४ । २ । ४ । २४ तथा ब्रा० ५ । १) में की गई है ।। ७ । २४ ।।
भाष्यसार - १. विद्वानों का कर्त्तव्य--धनुर्वेद के वेत्ता परोपकारी, श्रेष्ठ विद्वानों का कर्त्तव्य है, कि--वे धनुर्वेद की शिक्षा से एवं धनुर्वेद में प्रतिपादित क्रियाओं से यानों में तथा शस्त्र-अस्त्र विद्या की सिद्धि में अनेक बार (पुनः पुनः) अग्नि को प्रदीप्त करें और शत्रुओं पर विजय प्राप्त करें । वह अग्नि कैसा है ? इसके उत्तर में वेद कहता है कि वह प्रकाशमान सूर्य के सिर के समान है, सूर्य से पृथिवी को प्राप्त होने वाला है, अपने प्रकाश, दाह आदि सत्य गुणों से लोक में सर्वत्र प्रसिद्ध है, सब नरों को आनन्द पहुँचाने वाला है, जैसे सत्पुरुष अतिथि की पूजा करते हैं, वैसे वह अग्नि भी पूजा के योग्य है, मुख रूप में सब शिल्प व्यवहारों की रक्षा करने वाला है, आर-पार देखने का साधन है, अपनेश्रेष्ठ तेज आदि गुणों से प्रकाशमान है। सम्राट् के समान चक्रवर्ती है। २. अलङ्कार--इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार यह है कि विद्वानों के समान अन्यजन भी उक्त भौतिक अग्नि का उपयोग करें ।। ३. विनियोग--महर्षि ने इस मन्त्र का संस्कार विधि में सीमन्तोन्नयन संस्कार में विनियोग किया है ।। ७ । २४ ॥
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