यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 45
ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः
देवता - प्रजापतिर्देवता
छन्दः - विराट जगती,
स्वरः - निषादः
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रू॒पेण॑ वो रू॒पम॒भ्यागां॑ तु॒थो वो वि॒श्ववे॑दा॒ विभ॑जतु। ऋ॒तस्य॑ प॒था प्रेत॑ च॒न्द्रद॑क्षिणा॒ वि स्वः॒ पश्य॒ व्यन्तरि॑क्षं॒ यत॑स्व सद॒स्यैः॥४५॥
स्वर सहित पद पाठरूपेण॑। वः॒। रू॒पम्। अ॒भि। आ। अ॒गा॒म्। तु॒थः। वः॒। वि॒श्ववे॑दा॒ इति॑ वि॒श्वऽवेदाः। वि। भ॒ज॒तु॒। ऋ॒तस्य॑। प॒था। प्र। इ॒त॒। च॒न्द्रद॑क्षिणा॒ इति॑ च॒न्द्रऽद॑क्षिणाः। वि। स्व॒रिति॒ स्वः᳖। पश्य॑। वि। अ॒न्तरि॑क्षम्। यत॑स्व। स॒द॒स्यैः᳖ ॥४५॥
स्वर रहित मन्त्र
रूपेण वो रूपमभ्यागान्तुथो वो विश्ववेदा वि भजतु । ऋतस्य पथा प्रेत चन्द्रदक्षिणाः वि स्वः पश्य व्यन्तरिक्षँयतस्व सदस्यैः ॥
स्वर रहित पद पाठ
रूपेण। वः। रूपम्। अभि। आ। अगाम्। तुथः। वः। विश्ववेदा इति विश्वऽवेदाः। वि। भजतु। ऋतस्य। पथा। प्र। इत। चन्द्रदक्षिणा इति चन्द्रऽदक्षिणाः। वि। स्वरिति स्वः। पश्य। वि। अन्तरिक्षम्। यतस्व। सदस्यैः॥४५॥
विषय - अब तीन सभायें राज्य का शासन करें, यह उपदेश किया है ।।
भाषार्थ -
हे सेना और प्रजा के पुरुषो ! जैसे मैं सभापति (रूपेण) नेत्रों से ग्रहण करने योग्य प्रिय रूप से (व:) तुम्हारे (रूपम्) स्वरूप को (अभ्यागाम्) प्राप्त होता हूँ वैसे (विश्ववेदाः) सर्वज्ञ परमात्मा के समान (व:) तुम्हें (विभजतु) राजा न्याय से युक्त करे। और--
(तुथः) ज्ञान-वृद्ध आप (स्व:) चमकते हुये सूर्य के समान (ऋतस्य) सत्यके (पथा) मार्ग से (अन्तरिक्षम्) क्षय रहित, स्वभाव से अन्तर्यामी ईश्वर को वा ब्रह्मविज्ञान को (विपश्य) विविध प्रकार से देख। और--
सभा में (सदस्यैः) सभा के सभ्य जनों के साथ (ऋतस्य) सत्य के (पथा) मार्ग से (प्रयतस्व) प्रयत्न कर। और—
(चन्द्रदक्षिणा) सुवर्ण का दान करने वाले तुम लोग (ऋतस्य) सत्य के धर्मयुक्त मार्ग को (वि+इत) प्राप्त करो ॥ ७ । ४५ ।।
भावार्थ - सभापति राजा अपने पुत्रों के समान प्रजा, सेना और सभा के पुरुषों को प्रसन्न रखे और पक्षापात से रहित परमेश्वर के समान सदा न्याय करे। धार्मिक सभ्य पुरुषों की तीन सभा हों-- उनमें एक राजसभा हो जिससे सब राजकार्य सिद्ध हों तथा सब विघ्न दूर किये जायें। दूसरी विद्यासभा हो जिससे विद्या का प्रचार और अविद्या का नाश किया जाय। तीसरी धर्मसभा हो जिससे धर्म की उन्नति और धर्म की हानि सदा करें । सब अपने आत्मा और परमात्मा को देखकर अन्याय के मार्ग से हटकर, धर्म का सेवन कर, समयानुसार सत्य और असत्य के निर्णय में प्रयत्न करें ।। ७ । ४५ ।।
प्रमाणार्थ -
(तुथः) यहाँ गति वृद्धि हिंसा अर्थ वाली 'तु' धातु से उणादिक 'थक्' प्रत्यय है। (चन्द्रदक्षिणा) 'चन्द्र' शब्द निघं० (१ । २) में हिरण्य-नामों में पढ़ा है। (स्व:) निरु० (२ । १४) में 'स्वः' शब्द का अर्थ आदित्य है। (अन्तरिक्षम्) इस शब्द की निरुक्ति निरु० (२।१०) में इस प्रकार की है –"अन्तरिक्ष को अन्तरिक्ष क्यों कहते हैं ? इसलिये कि पृथिवी और द्युलोक के बीच में यह शून्य रहता है, अथवा यह उन दोनों लोकों के बीच में रहता है, अथवा यह सब शरीरों के बीच में अक्षय रूप से विद्यमान रहता है।" इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४ । ३ । ४ । १४-१८) में की गई है ॥ ७ । ४५ ।।
भाष्यसार - तीन सभाओं द्वारा राज्य का शासन--सभापति राजा अपने पुत्रों के समान प्रियभाव से सेना और प्रजा जनों को प्रसन्न रखें। जैसे परमात्मा सब पदार्थों का यथार्थ वेत्ता है वैसे सत्य और असत्य का यथार्थ वेत्ता बनकर पक्षपात रहित होकर परमेश्वर के समान सदा न्याय करे । इस न्याय-व्यवस्था को चलाने के लिये धार्मिक सभ्य जनों की तीन सभाओं का निर्माण करे:-- १. राजसभा--इस राजसभा में ज्ञान वृद्ध लोग हों। जिन का ज्ञान प्रचण्ड आदित्य के समान हो । जिससे वे सत्य के मार्ग पर चल कर नाशरहित, अन्तर्यामी स्वाभाविक ब्रह्म को अथवा विज्ञान को विविध प्रकार से देख सकें। अपने इस अद्भुत ब्रह्मज्ञान एवं विज्ञान से राजकार्यों को सिद्ध करें तथा राज कार्य में उपस्थित होने वाले विघ्नों का निवारण करें। २. विद्यासभा--राजा विद्यासभा के सभ्य सदस्यों के साथ सत्य के मार्ग पर चलने का पूर्ण प्रयत्न करे। इस सभा के सदस्य यह प्रयत्न करें कि राज्य में विद्या का प्रचार और अविद्या का नाश हो । ३. धर्मसभा--राजा धर्मसभा के सदस्य विद्वानों का सुवर्ण आदि उत्तम पदार्थों की दक्षिणा से सत्कार करे। और विद्वान् लोग सदा सत्य धर्म के मार्ग पर चलें तथा ऐसा प्रयत्न करें कि जिससे धर्म की उन्नति और धर्म की सदा हानि हो ।। ७ । ४५ ।।
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