यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 9
ऋषिः - गृत्समद ऋषिः
देवता - मित्रावरुणौ देवते
छन्दः - आर्षी गायत्री,आसुरी गायत्री
स्वरः - षड्जः
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अ॒यं वां॑ मित्रावरुणा सु॒तः सोम॑ऽऋतावृधा। ममेदि॒ह श्रु॑त॒ꣳ हव॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि मि॒त्रावरु॑णाभ्यां त्वा॥९॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम्। वाम्। मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒। सु॒तः। सोमः॑। ऋ॒ता॒वृ॒धेत्यृ॑तऽवृधा। मम॑। इत्। इ॒ह। श्रु॒त॒म्। हव॑म्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। मि॒त्रावरु॑णाभ्याम्। त्वा॒ ॥९॥
स्वर रहित मन्त्र
अयँवाम्मित्रावरुणा सुतः सोमऽऋतावृधा । ममेदिह श्रुतँ हवम् । उपयामगृहीतोसि मित्रावरुणाभ्यां त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
अयम्। वाम्। मित्रावरुणा। सुतः। सोमः। ऋतावृधेत्यृतऽवृधा। मम। इत्। इह। श्रुतम्। हवम्। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। मित्रावरुणाभ्याम्। त्वा॥९॥
विषय - फिर अध्यापक और शिष्य के कर्म का उपदेश किया है ॥
भाषार्थ -
हे (मित्रावरुणा) प्राण और उदान के समान (ऋतावृधा) विज्ञान को बढ़ाने वाले अध्यापक और शिष्य लोगो ! [वाम्] तुम्हारा यह (सोमः) योग-ऐश्वर्य का वृन्द (सुतः)तैयार है । तुम दोनों (इह) यहाँ(मम) मेरी (हवम्) स्तुतियों को (श्रुतम्) सुनो।
हे यजमान ! तू (उपयामगृहीतः) यम आदि योगाङ्गों से युक्त (इत्) ही है, इसलिये मैं (मित्रावरुणाभ्याम्) प्राण और उदान के साथ वर्तमान (त्वा) तुझ को ग्रहण करता हूँ ॥ ७ । ९॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचक लुप्तोपमा अलङ्कार है ॥ मनुष्यों को यह उचित है कि वे विद्या को ग्रहण करके, उपदेश सुनकर, यम-नियमों को धारण करके योगाभ्यास से युक्त रहें ॥ ७ । ९॥
प्रमाणार्थ -
इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४।१।४।७) में की गई है ॥ ७ । ९ ॥
भाष्यसार - १. अध्यापक और शिष्य के कर्म--जैसे शरीर में प्राण और उदान हैं, वैसे समाज में अध्यापक और शिष्य हैं। अध्यापक 'मित्र' है और शिष्य 'वरुण' हैं। ये दोनों विद्या एवं विज्ञान को बढ़ाने वाले, योग ऐश्वर्य से सम्पन्न तथा विद्वानों के उपदेश को सुनने वाले होते हैं। यम-नियम आदि योगाङ्गों को ग्रहण करके--धारण करके, सदा योगाभ्यास से संयुक्त रहते हैं। योगाभ्यास को कभी नहीं छोड़ते ।। २. अलङ्कार–मन्त्र में उपमावाचक 'इव' आदि शब्द लुप्त होने से वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है॥ यहाँ अध्यापक शिष्य की प्राण और उदान से उपमा की गई है ॥ ७ । ९॥
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