यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 47
ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः
देवता - वरुणो देवता
छन्दः - भूरिक् प्राजापत्या जगती,स्वराट प्राजापत्या जगती,निचृत् आर्ची जगती,विराट आर्ची जगती
स्वरः - निषादः
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अ॒ग्नये॑ त्वा॒ मह्यं॒ वरु॑णो ददातु॒ सोऽमृत॒त्त्वम॑शी॒यायु॑र्दा॒त्रऽए॑धि॒ मयो॒ मह्यं॑ प्रतिग्रही॒त्रे रु॒द्राय॑ त्वा॒ मह्यं॒ वरु॑णो ददातु॒ सोऽमृत॒त्त्वम॑शीय प्रा॒णो दा॒त्रऽए॑धि॒ वयो॒ मह्यं॑ प्रतिग्रही॒त्रे बृह॒स्पत॑ये त्वा॒ मह्यं॒ वरु॑णो ददातु॒ सोऽमृत॒त्त्वम॑शीय॒ त्वग्दा॒त्रऽए॑धि॒ मयो॒ मह्यं॑ प्रतिग्रही॒त्रे य॒माय॑ त्वा॒ मह्यं॒ वरु॑णो ददातु॒ सोऽमृत॒त्त्वम॑शीय॒ हयो॑ दा॒त्रऽए॑धि॒ वयो॒ मह्यं॑ प्रतिग्रही॒त्रे॥४७॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नये॑। त्वा॒। मह्य॑म्। वरु॑णः। द॒दा॒तु॒। सः। अ॒मृ॒त॒त्वमित्य॑मृत॒ऽत्वम्। अ॒शी॒य॒। आयुः॑। दा॒त्रे। ए॒धि॒। मयः॑। मह्य॑म्। प्र॒ति॒ग्र॒ही॒त्र इति॑ प्रतिऽग्रही॒त्रे। रु॒द्रा॑य। त्वा॒। मह्य॑म्। वरु॑णः। द॒दा॒तु॒। सः। अ॒मृ॒त॒त्वमित्य॑मृत॒ऽत्वम्। अ॒शी॒य॒। प्रा॒णः। दा॒त्रे। ए॒धि॒। वयः॑। मह्य॑म्। प्र॒ति॒ग्र॒ही॒त्र इति॑ प्रतिऽग्रही॒त्रे। बृह॒स्पत॑ये। त्वा॒। मह्य॑म्। वरु॑णः। द॒दा॒तु॒। सः। अ॒मृ॒त॒त्वमित्य॑मृत॒ऽत्वम्। अ॒शी॒य॒। त्वक्। दा॒त्रे। ए॒धि॒। मयः॑। मह्य॑म्। प्र॒ति॒ग्र॒ही॒त्र इति॑ प्रतिऽग्रही॒त्रे। य॒माय॑। त्वा॒। मह्य॑म्। वरु॑णः। द॒दा॒तु॒। सः। अ॒मृ॒त॒त्वमित्य॑मृत॒ऽत्वम्। अ॒शी॒य॒। हयः॑। दा॒त्रे। ए॒धि॒। वयः॑। मह्य॑म्। प्र॒ति॒ग्र॒ही॒त्र इति॑ प्रतिऽग्रही॒त्रे ॥४७॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नये त्वा मह्यँवरुणो ददातु सो मृतत्वमशीयायुर्दात्रऽएधि मयो मह्यम्प्रतिग्रहीत्रे रुद्राय त्वा मह्यँवरुणो ददातु सो मृतत्वमशीय प्राणो दात्र एधि वयो मह्यम्प्रतिग्रहीत्रे बृहस्पतये त्वा मह्यँवरुणो ददातु सोमृतत्वमशीय त्वग्दात्रऽएधि मयो मह्यम्प्रतिग्रहीत्रे यमाय त्वा मह्यँवरुणो ददातु सोमृतत्वमशीय हयो दात्रऽएधि वयो मह्यम्प्रतिग्रहीत्रे ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्नये। त्वा। मह्यम्। वरुणः। ददातु। सः। अमृतत्वमित्यमृतऽत्वम्। अशीय। आयुः। दात्रे। एधि। मयः। मह्यम्। प्रतिग्रहीत्र इति प्रतिऽग्रहीत्रे। रुद्राय। त्वा। मह्यम्। वरुणः। ददातु। सः। अमृतत्वमित्यमृतऽत्वम्। अशीय। प्राणः। दात्रे। एधि। वयः। मह्यम्। प्रतिग्रहीत्र इति प्रतिऽग्रहीत्रे। बृहस्पतये। त्वा। मह्यम्। वरुणः। ददातु। सः। अमृतत्वमित्यमृतऽत्वम्। अशीय। त्वक्। दात्रे। एधि। मयः। मह्यम्। प्रतिग्रहीत्र इति प्रतिऽग्रहीत्रे। यमाय। त्वा। मह्यम्। वरुणः। ददातु। सः। अमृतत्वमित्यमृतऽत्वम्। अशीय। हयः। दात्रे। एधि। वयः। मह्यम्। प्रतिग्रहीत्र इति प्रतिऽग्रहीत्रे॥४७॥
विषय - अब किस प्रयोजन के लिये दान और प्रतिग्रह का सेवन करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया जाता है ।।
भाषार्थ -
हे वसु नामक अध्यापक ! जिस (अग्नये) चौबीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य का सेवन कर अग्नि के समान तेजस्वी होने के लिये मुझे (त्वा) आप वसु नामक अध्यापकको (वरुणः) सब से उत्तम, प्रशंसनीय विद्या वाला अनूचान अध्यापक देवे, (सः) वह उक्त विद्यार्थी मैं जिस (अमृतत्वम्) क्रिया से सिद्ध नित्य विज्ञान को (अशीय) प्राप्त करूँ, वह उस (दात्रे) विद्या का दान करने वाले वरुण के लिये (आयु:) चिर आयु को (एधि) बढ़ाने वाला हो, और–(प्रतिग्रहीत्रे) विद्या को ग्रहण करने वाले (मह्यम्) मुझ शिष्य विद्यार्थी के लिये (मयः) सुख को बढ़ाने वाला हो।
हे रुद्र नामक अध्यापक ! जिस (रुद्राय) चवालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य का सेवन करके रुद्र गुणों को धारण करने के लिये (मह्यम्) मुझ विद्यार्जन में तत्पर विद्यार्थी को (त्वा) आप रुद्र नामक अध्यापक को (वरुणः) श्रेष्ठ गुणों को देने वाला अध्यापक देवे, (सः) वह उक्त विद्यार्थी मैं जिस (अमृतत्वम्) विज्ञान को (अशीय) प्राप्त करूँ वह उस (दात्रे) विद्या-दान करने वाले वरुण के लिये (प्राणः) योग से प्राप्त बल से युक्त होकर तू (एधि) वृद्धि को प्राप्त हो और (प्रतिग्रहीत्रे) अध्यापक से प्राप्त विद्या का संचय करने वाले (मह्यम्) विद्या के ग्रहण में प्रवृत्त मुझ विद्यार्थी के लिये (वयः) तीनों अवस्थाओं में सुखभोग युक्त जीवन को बढ़ा ।
हे आदित्य नामक अध्यापक ! जिस (बृहस्पते)अड़तालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य का सेवन करके वेद-विद्यारूप वाणी के पालन (मह्यम्) मुझ पूर्ण विद्या के अभिलाषी को (त्वा) आप पूर्ण विद्या के अध्यापक को (वरुणः) श्रेष्ठ अध्यापक देवे, (सः) वह उक्त विद्यार्थी मैं जिस (अमृतत्वत्) विज्ञान को (अशीय) प्राप्त करूँ वह उस (दात्रे) विद्यादान करने वाले वरुण के लिये [त्वक्] स्पर्श-इन्द्रिय के सुख को तू (एघि) बढ़ा और--
(प्रतिग्रहीत्रे) विद्या ग्रहण करने वाले (मह्यम्) मुझ पूर्ण विद्या के अभिलाषी के लिये सुख को बढ़ावें । और जिस [यमाय] गृहाश्रम-सम्बन्धी विषयों के सेवन से उपरत यम-नियम आदि से युक्त जितेन्द्रिय (मह्यम्) मुझ सत्य और असत्य के निश्चय करने वाले को (त्वा) आप सब दोषें से रहित उपदेष्टाआप्त पुरुष देवे, (सः) उक्त विद्यार्थी मैं जिस (अमृतत्वम्) विज्ञान को (अशीय) प्राप्त करूँ, वह उस (दात्रे) विद्या-दान करने वाले वरुण के लिये (हयः) ज्ञान की वृद्धि को तू (एधि) समृद्ध कर, और (प्रतिग्रहीत्रे) विद्या को ग्रहण करने वाले (मह्यम्) मुझ सबकी वृद्धि के इच्छुक के लिये (वयः) तीनों अवस्थाओं के सुख और चिर आयु को बढ़ा ।। ७ । ४७ ।।
भावार्थ - सब पुरुषों को योग्य है कि जो सब से उत्कृष्ट अनूचान विद्वान् हो उससे अन्य अध्यापकों को परीक्षा करके अपनी कन्या और पुत्रों को उनके सदृश अध्यापकों से शिक्षा दिलावें । पढ़ने वाले छात्र अपनी अपनी बुद्धि को न्यून और अधिक जानकर अपने सदृश अध्यापकों की प्रीतिपूर्वक सेवा करके उनसे निरन्तर विद्या ग्रहण करें ।। ७ । ४७ ।।
प्रमाणार्थ -
(मयः) यह शब्द निघं० (३।६) में सुख-नामों में पढ़ा है। (हयः) यहाँ गति और वृद्धि अर्थ वाली 'हि' धातु से उणादि का 'असुन्' प्रत्यय है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४ । ३ । ४ । २८-३१) में की गई है ।। ७ । ४७ ।।
भाष्यसार - दान देने और दक्षिणा लेने का प्रयोजन--सर्वोत्तम प्रशस्त विद्या वाले अनूचान विद्वान अध्यापक लोग बालक को २४ वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य का सेवन करके तेजस्वी बनने के लिये वसु अध्यापक की परीक्षा करके उसे सौंप देवें । वह बालक क्रियासिद्ध नित्य-विज्ञान को प्राप्त करें, जो विज्ञान विद्या का दान करने वाले अनूचान विद्वानों की आयु को बढ़ाने वाला है और विद्या ग्रहण करने वाले शिष्य के लिये सुख का हेतु है। उक्त अनूचान विद्वान् लोग बालक को ४४ वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य का सेवन करके रुद्र-गुणों को धारण करने के लिये रुद्र अध्यापक की परीक्षा करके उसे सौंप देवें । वह बालक कियासिद्ध नित्य-विज्ञान को प्राप्त करे जो विज्ञान विद्यादान करने वाले अनूचान विद्वानों के योगसिद्ध बल को बढ़ाने वाला है। और अध्यापक से प्राप्त विद्या का संचय करने वाले, विद्या ग्रहण में लगे हुये बालक के लिये तीनों अवस्थाओं में सुख और जीवन प्रदान करता है। अनूचान विद्वान् लोग बालक को ४८ वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य सेवन करके वेदवाणी का पालक (बृहस्पति) बनने के लिये आदित्य अध्यापक की परीक्षा करके उसे सौंप दें। वह बालक क्रियासिद्ध नित्यज्ञान को प्राप्त करें । जो विज्ञान विद्या का दान करने वाले अनूचान विद्वान् के स्पर्शेन्द्रिय के सुख को बढ़ाने वाला है और पूर्ण विद्या के अभिलाषी बालक के लिये सुख का हेतु है । सत्य का उपदेश करने वाला आप्त विद्वान्, सब दोषों से रहित उपदेशक को, गृहाश्रम के विषयों के सेवन से उपरत (वानप्रस्थ) यम-नियम आदि का पालन करने वाले, सत्य-असत्य का निश्चय करने वाले मुझ वानप्रस्थ को देता है । सो मैंने जिस विज्ञान (अमृत) को प्राप्त किया है वह उक्त आप्त विद्वान् के लिये भी ज्ञानवर्द्धक है और सबकी वृद्धि चाहने वाले आप उपदेशक के लिये भी तीनों अवस्थाओं में सुखदायक एवं चिरायु का हेतु है । इस मन्त्र में प्रतिपादित विज्ञान (विद्या) की प्राप्ति करने-कराने के लिये राजा आदि सत्पुरुष, विद्वानों के लिये सुवर्णआदि उत्तम पदार्थों का दान करें और विद्वान् लोग इसी उद्देश्य से उक्त दान को दक्षिणा रूप में ग्रहण करें ।। ७ । ४७ ।।
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
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