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  • यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 35
    ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप्,विराट आर्ची पङ्क्ति, स्वरः - धैवतः, ऋषभः
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    इन्द्र॑ मरुत्वऽइ॒ह पा॑हि॒ सोमं॒ यथा॑ शार्या॒तेऽअपि॑बः सु॒तस्य॑। तव॒ प्रणी॑ती॒ तव॑ शूर॒ शर्म॒न्नावि॑वासन्ति क॒वयः॑ सुय॒ज्ञाः। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा म॒रुत्व॑तऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा म॒रुत्व॑ते॥३५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑। म॒रु॒त्वः॒। इ॒ह। पा॒हि॒। सोम॑म्। यथा॑। शा॒र्य्या॒ते। अपि॑बः। सु॒तस्य॑। तव॑। प्रणी॑ती। प्रनी॑तीति॒ प्रऽनी॑ती। तव॑। शू॒र॒। शर्म्म॑न्। आ। वि॒वा॒स॒न्ति॒। क॒वयः॑। सु॒य॒ज्ञा इति॑ सुऽय॒ज्ञाः। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। म॒रुत्व॑ते। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। म॒रुत्व॑ते ॥३५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र मरुत्वऽइह पाहि सोमँयथा शार्याते अपिबः सुतस्य । तव प्रणीती तव शूर शर्मन्ना विवासन्ति कवयः सुयज्ञाः । उपयामगृहीतो सीन्द्राय त्वा मरुत्वतेऽएष ते योनिरिन्द्राय त्वा मरुत्वते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः। मरुत्वः। इह। पाहि। सोमम्। यथा। शार्य्याते। अपिबः। सुतस्य। तव। प्रणीती। प्रनीतीति प्रऽनीती। तव। शूर। शर्म्मन्। आ। विवासन्ति। कवयः। सुयज्ञा इति सुऽयज्ञाः। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। इन्द्राय। त्वा। मरुत्वते। एषः। ते। योनिः। इन्द्राय। त्वा। मरुत्वते॥३५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 7; मन्त्र » 35
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    भाषार्थ -
    हे (मरुत्व:) धार्मिक प्रजा वाले (इन्द्र) सब विघ्नों का विदारण करने वाले, सकल ऐश्वर्ययुक्त सम्राट् ! आपने (इह) इस संसार में जैसे (शार्या। ते) अङ्गुलियों से निष्पन्न होने वाले कर्मों में सदा प्रवृत्त होकर (सुतस्य) सोम का (अपिब:) पार किया है, वैसे (सोमम्) सकल गुण, ऐश्वर्य, कल्याण-कर्म के हेतु पठन-पाठन नामक यज्ञ की (पाहि) रक्षा करो। हे (शूर) धर्म के विरोधियों की हिंसा करने वाले शूर ! (तव) तेरा (शर्मन्) न्यायालय में (सुयज्ञाः) उत्तम अध्ययन-अध्यापन नामक यज्ञ के तुल्य (कवयः) मेधावी लोग (तव) तेरी (प्रणीतिम्) श्रेष्ठ नीति को (आविवासन्ति) सेवन करते हैं, क्योंकि आप (उपयामगृहीतः) उत्तम नियमों से स्वीकार किये हुये (असि) हो, इसलिये [त्वा] आपकी (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य के लिये तथा (मरुत्वते) प्रजा-सम्बन्ध के लिये हम सेवा करते हैं। (ते) आपका (एषः) यह विद्या प्रचार (योनिः) घर है अतः [त्वा] आपको (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य के लिये (मरुत्वते) प्रजा-सम्बन्ध के लिये राजा मानते हैं ।। ७ । ३५ ।।

    भावार्थ - सब विद्वानों को उचित है कि न्यायसभा और राजसभा की आज्ञा का उल्लंघन न करें और वैसे ये राजसभा के सदस्य भी विद्वानों की आज्ञा का उल्लंघन न करें। जो पुरुष सब से उत्कृष्ट हो उसे सभापतिबनावें। वह सभापति उत्तम नीति से सब राज्य का प्रबन्ध करे ॥ ७ । ३५ ।।

    भाष्यसार - राजा के द्वारा अध्यापन आदि कार्यों की रक्षा--प्रशंसा के योग्य, धार्मिक प्रजा वाला, सब विघ्नों का विनाश करने वाला, सकल ऐश्वर्य से युक्त सम्राट् इस संसार में जैसे उसने हाथों से निष्पन्न होने वाले कर्म में प्रवृत्त होकर सोमरस का पान किया है, वैसे सकल गुण, ऐश्वर्य और कल्याण कर्म के हेतु पठन-पाठन रूप यज्ञ की रक्षा करे। अध्ययन-अध्यापन रूप यज्ञ का अनुष्ठान करने वाले मेधावी विद्वानों को उचित है कि वे धर्मविरोधी दुष्ट जनों के हिंसक राजा के न्यायालय की और राजसभा की उत्तम नीति का सेवन करें अर्थात् इनकी आज्ञा का कभी उल्लंघन न करें। राज्य सभा के सदस्य भी उक्त विद्वानों की आज्ञा का उल्लंघन न करें । जो उत्तम नियमों का आचरण करने के कारण सब से उत्कृष्ट पुरुष हो, उसे ही सभापति रूप में स्वीकार करें। परम ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये तथा उससे प्रजा रूप सम्बन्ध के लिये उसकी सेवा करें । राजा का कर्त्तव्य है कि वह विद्या का प्रचार करे। क्योंकि यह उसके लिये सुख का हेतु है। विद्याप्रचारक सभापति को परम ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये तथा प्रजा रूप सम्बन्ध के लिये प्रजाजन राजा मानें और वह सभापति उत्तम नीति से सब राज्य का प्रबन्ध करें ।। ७ । ३५ ।।

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