यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 11
ऋषिः - भरद्वाज ऋषिः
देवता - गृहपतयो देवताः
छन्दः - निचृत् आर्षी अनुष्टुप्,
स्वरः - गान्धारः
2
उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि॒ हरि॑रसि हारियोज॒नो हरि॑भ्यां त्वा। हर्यो॑र्धा॒ना स्थ॑ स॒हसो॑मा॒ऽइन्द्रा॑य॥११॥
स्वर सहित पद पाठउ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। हरिः॑। अ॒सि॒। हा॒रि॒यो॒ज॒न इति॑ हारिऽयोज॒नः। हरि॑ऽभ्या॒मिति॒ हरि॑ऽभ्याम्। त्वा॒। हर्य्योः॑। धा॒नाः। स्थ॒। स॒हसो॑मा इति॑ स॒हऽसो॑माः। इन्द्रा॑य ॥११॥
स्वर रहित मन्त्र
उपयामगृहीतोसि हरिरसि हारियोजनो हरिभ्यान्त्वा । हर्यार्धाना स्थ सहसोमा इन्द्राय ॥
स्वर रहित पद पाठ
उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। हरिः। असि। हारियोजन इति हारिऽयोजनः। हरिऽभ्यामिति हरिऽभ्याम्। त्वा। हर्य्योः। धानाः। स्थ। सहसोमा इति सहऽसोमाः। इन्द्राय॥११॥
विषय - हारियोजन
पदार्थ -
पत्नी पति से कहती है — १. ( उपयामगृहीतः असि ) = आपका जीवन उपासना के द्वारा यम-नियमों से युक्त है अथवा ( उपयाम ) = विवाह के द्वारा आपने मेरा हाथ ग्रहण किया है।
२. ( हरिः असि ) = आप गृहस्थरूपी शकट के खैंचनेवाले हैं, यथायोग्य गृहाश्रम के व्यवहार को चलानेवाले हैं ३. ( हारियोजनः ) = [ ऋक्सामे वै हरी—श०।४।४।३।७, तौ योजयति। स्वार्थे तद्धितः ] अपने जीवन में आप ऋक् और साम को जोड़नेवाले हैं। ‘ऋक्’ विज्ञान है, ‘साम’ उपासना। आपके जीवन में विज्ञान व उपासना दोनों को स्थान मिला है। आपका जीवन ‘विद्या-श्रद्धा’ सम्पन्न है। इसमें मस्तिष्क व हृदय दोनों का ठीक विकास हुआ है।
४. ( हरिभ्यां त्वा ) = मैं भी ऋक् व साम, अर्थात् विद्या व श्रद्धा के विकास के द्वारा आपको स्वीकार करती हूँ। वस्तुतः पत्नी अपने जीवन में इन दोनों तत्त्वों का विकास करके ही पति की अनुकूलता का सम्पादन कर पाती है।
५. अब इन पति-पत्नी से प्रभु कहते हैं कि तुम ( हर्योः ) = इन विद्या व श्रद्धा के ( धानाः ) = धारण करनेवाले ( स्थः ) = हो अथवा कर्मेन्द्रिय पञ्चक व ज्ञानेन्द्रिय पञ्चकरूप इन्द्रियाश्वों को तुम अपने वश में करनेवाले हो।
६. ( सहसोमाः ) = तुम दोनों साथ-साथ शक्ति का सम्पादन करनेवाले हो, अर्थात् गृहस्थ में भी संयमी जीवन बिताते हुए अपनी शक्ति को नष्ट नहीं होने देते।
७. ( इन्द्राय ) = मैं तुम्हें परमैश्वर्य की प्राप्ति के लिए इस गृहस्थ में सङ्गत करता हूँ। तुम गृहस्थ-धर्मों का ठीक प्रकार पालन करते हुए मोक्षरूप परमैश्वर्य को प्राप्त करो।
भावार्थ -
भावार्थ — गृहस्थ में हम ‘ज्ञान व भक्ति’ दोनों का समन्वय करके चलें। हम कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों को धारण करनेवाले बनें। शक्ति का सम्पादन करते हुए मोक्ष को प्राप्त करें।
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