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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 23
    ऋषिः - अत्रिर्ऋषिः । ऊरुमित्यस्य शुनः शेप ऋषिः देवता - गृहपतयो देवताः छन्दः - याजुषी उष्णिक्,निचृत् आर्षी त्रिष्टुप्,आसुरी गायत्री स्वरः - ऋषभः, षड्जः
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    माहि॑र्भू॒र्मा पृदा॑कुः। उ॒रुꣳ हि राजा॒ व॑रुणश्च॒कार॒ सूर्या॑य॒ पन्था॒मन्वे॑त॒वाऽउ॑। अ॒पदे॒ पादा॒ प्रति॑धातवेऽकरु॒ताप॑व॒क्ता हृ॑दया॒विध॑श्चित्। नमो॒ वरु॑णाया॒भिष्ठि॑तो॒ वरु॑णस्य॒ पाशः॑॥२३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा। अहिः॑। भूः॒। मा। पृदा॑कुः। उ॒रुम्। हि। राजा॑। वरु॑णः। च॒कार॑। सूर्य्या॑य। पन्था॑म्। अन्वे॑त॒वा इत्युनु॑ऽएत॒वै। ऊँऽइत्यूँ॑। अ॒पदे॑। पादा॑। प्रति॑धातव॒ इति॒ प्रति॑ऽधातवे। अ॒कः॒। उ॒त। अपव॒क्तेत्य॑पऽवक्ता। हृ॒द॒या॒विधः॑। हृ॒द॒य॒विध॒ इति॑ हृदय॒ऽविधः॑। चि॒त्। नमः॑। वरु॑णाय। अ॒भिष्ठि॑तः। अ॒भिस्थि॑त॒ इत्य॒भिऽस्थि॑तः। वरु॑णस्य। पाशः॑ ॥२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    माहिर्भूर्मा पृदाकुः । उरुँ हि राजा वरुणश्चकार सूर्याय पन्थामन्वेतवा ऽउ । अपदे पादा प्रतिधातवेकरुतापवक्ता हृदयाविधश्चित् । नमो वरुणायाभिष्ठितो वरुणस्य पाशः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मा। अहिः। भूः। मा। पृदाकुः। उरुम्। हि। राजा। वरुणः। चकार। सूर्य्याय। पन्थाम्। अन्वेतवा इत्युनुऽएतवै। ऊँऽइत्यूँ। अपदे। पादा। प्रतिधातव इति प्रतिऽधातवे। अकः। उत। अपवक्तेत्यपऽवक्ता। हृदयाविधः। हृदयविध इति हृदयऽविधः। चित्। नमः। वरुणाय। अभिष्ठितः। अभिस्थित इत्यभिऽस्थितः। वरुणस्य। पाशः॥२३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 23
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    पदार्थ -

    १. गत मन्त्र में यज्ञियवृत्ति का उल्लेख था। यज्ञियवृत्तिवाला व्यक्ति दूसरे से लड़ता नहीं, न हानि पहुँचाता है। मन्त्र में कहते हैं कि— ( मा अहिः भूः ) = तू साँप मन बन, अर्थात् कभी कुटिलता का आश्रय मत ले और न ही साँप की तरह औरों को डसनेवाला बन। कभी कड़वे—चुभनेवाले शब्द न बोल। 

    २. ( मा पृदाकुः ) = तू अजगर मत बन। दूसरे की सम्पत्ति को हड़पनेवाला मत बन, क्योंकि उस ( राजा वरुणः ) = सारे संसार के शासक वरुण ने ( हि ) = निश्चय से ( उरुम् चकार ) = इस संसार को अत्यन्त विशाल बनाया है। दूसरे के भाग को हड़पकर क्या करना? परस्पर लड़ना भी क्यों? 

    ३. उस प्रभु ने तो ( सूर्याय उ ) = सूर्य के लिए भी, जोकि पृथिवी से लाखों गुणा बड़ा है, ( अन्वेतवा ) = अनुक्रम से चलने के लिए, ( पन्थाम् ) = मार्ग को ( चकार ) = बनाया है फिर इस छोटे से देह में प्रविष्ट मेरे लिए इस संसार में कोई कमी है क्या? नहीं, मुझे अपने हृदय को विशाल बनाना चाहिए और छोटे-छोटे भू-भागों के लिए भाइयों से लड़ना न चाहिए। 

    ४. ( अपदे ) = जहाँ पाँव का रखना भी कठिन था, जहाँ नाममात्र भी आना-जाना न था, वहाँ भी ( पादा प्रतिधातवे ) = पाँवों के प्रतिधारण—स्थापन के लिए ( अकः ) = उस प्रभु ने व्यवस्था कर दी। प्रभु कृपा से जङ्गल में भी मङ्गल हो गया। जहाँ दिन में भी चलना कठिन था वहाँ रात में भी चलना सुगम हो गया, अतः मनुष्य को चाहिए यही कि परस्पर लड़ने की बजाय तनिक पुरुषार्थ से वीरान भू-भागों को आबाद कर ले। 

    ५. ( उत ) = और वे प्रभु ( हृदयाविधः ) = दूसरे के हृदयों को पीड़ित करनेवाली वाणी बोलनेवाले की ( चित् ) = भी ( अपवक्ता ) = भर्त्स्ना करनेवाले हैं। उसे प्रभु अपनी गोद में स्थान नहीं देते। 

    ६. हमें चाहिए कि हम प्रातः-सायं ( वरुणाय नमः ) = इस वरुण के प्रति नतमस्तक हों, ( वरुणस्य पाशः ) = उस वरुण का पाश ( अभिष्ठितः ) = दोनों ओर स्थित है। वे प्रभु ऐहलौकिक व पारलौकिक दोनों ही दण्ड देते हैं। औरों का भाग हड़पनेवाले को यहाँ नींद नहीं और परलोक में यह सर्पादि की हीन योनि में ही जाता है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम संसार में सरलवृत्ति से चलें, औरों के भाग को न हड़प जाएँ। संसार अत्यन्त विशाल है, छोटे-छोटे भू-भागों के लिए परस्पर लड़ें नहीं। कभी मर्मपीड़ाकर वचन न बोलें।

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