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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 30
    ऋषिः - अत्रिर्ऋषिः देवता - दम्पती देवते छन्दः - आर्षी जगती स्वरः - मध्यमः
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    पु॒रु॒द॒स्मो विषु॑रूप॒ऽइन्दु॑र॒न्तर्म॑हि॒मान॑मानञ्ज॒ धीरः॑। एक॑पदीं द्वि॒पदीं॑ त्रि॒पदीं॒ चतु॑ष्पदीम॒ष्टाप॑दीं॒ भुव॒नानु॑ प्रथन्ता॒ स्वाहा॑॥३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒रु॒द॒स्म इति॑ पुरुऽद॒स्मः। वि॑षुरूप॒ इति॒ विषु॑ऽरूपः। इन्दुः॑। अ॒न्तः। म॒हि॒मान॑म्। आ॒न॒ञ्ज॒। धीरः॑। एक॑पदी॒मित्येक॑ऽपदीम्। द्वि॒पदी॒मिति॑ द्वि॒ऽपदीम्॑। त्रि॒पदी॒मिति॒ त्रि॒ऽपदी॑म्। चतु॑ष्पदीम्। चतुः॑पदी॒मिति॒ चतुः॑ऽपदीम्। अ॒ष्टाप॑दी॒मित्य॒ष्टाऽप॑दीम्। भुव॑ना। अनु॒। प्र॒थ॒न्ता॒म्। स्वाहा॑ ॥३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुरुदस्मो विषुरूप ऽइन्दुरन्तर्महिमानमानञ्ज धीरः । एकपदीन्द्विपदीन्त्रिपदीञ्चतुष्पदीमष्टापदीम्भुवनानु प्रथन्ताँ स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पुरुदस्म इति पुरुऽदस्मः। विषुरूप इति विषुऽरूपः। इन्दुः। अन्तः। महिमानम्। आनञ्ज। धीरः। एकपदीमित्येकऽपदीम्। द्विपदीमिति द्विऽपदीम्। त्रिपदीमिति त्रिऽपदीम्। चतुष्पदीम्। चतुःपदीमिति चतुःऽपदीम्। अष्टापदीमित्यष्टाऽपदीम्। भुवना। अनु। प्रथन्ताम्। स्वाहा॥३०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 30
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    पदार्थ -

    गत मन्त्र के अनुसार यदि माता गर्भ में ही बालक का सुन्दरता से निर्माण करती है और उसकी योनि रोगरहित है तो चन्द्रतुल्य मुखवाले सुन्दर सन्तान का जन्म होता है। यह सन्तान १. ( पुरुदस्मः ) = [ पुरुः बहुः दस्म उपक्षयो दुःखानां यस्मात्—द० ] माता-पिता के सब कष्टों का निवारण करनेवाला होता है। वस्तुतः इसीलिए इसे ( पुत्र ) = ‘पुनाति त्रायते’ पवित्र बनाता है और त्राण करता है’ इस नाम से कहते हैं। 

    २. ( विषुरूपः ) = यह अत्यन्त सुन्दर रूपवाला होता है। वस्तुतः यदि गर्भ का धारण प्रसन्नतापूर्वक [ सुप्रीतम् मन्त्र २६ ] किया जाए और उसके सुभरण [ सुभृतं मन्त्र २६ ] का ध्यान किया जाए तो सन्तान सुन्दर रूपवाला क्यों न होगा? 

    ३. ( इन्दुः ) = यह सन्तान तो चन्द्रतुल्य होता है अथवा [ इन्द् to be powerful ] बड़ा शक्तिशाली होता है। 

    ४. ( अन्तः ) = यह गर्भ के अन्दर ही ( महिमानम् ) = महिमा को ( आनञ्ज ) = प्राप्त होता है [ अञ्ज् = गति ]। गर्भावस्था में ही माता ने इसे बड़ा सुन्दर बनाया है। 

    ५. ( धीरः ) = यह धीर है, ज्ञानी है। 

    ६. ऐसा सन्तान जब बड़ा होता है तब इसके कारण ( भुवना ) = [ भवन्ति भूतानि येषां तानि गृहाणि—द० ] प्राणियों के निवास-स्थानभूत घर, ( एकपदीम् ) =  ‘ओम्’ इस एक पद का व्याख्यान करनेवाली, ( द्विपदीम् ) = अभ्युदय व निःश्रेयस को प्राप्त करानेवाली, ( त्रिपदीम् ) = वाणी, मन व शरीर के सुखों को प्राप्त करानेवाली, ( चतुष्पदीम् ) = ‘धर्मार्थ- काममोक्ष’ इन चारों पुरुषार्थों की प्रतिपादिका तथा ( अष्टापदीम् ) = ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र इन चारों वर्णों व ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वनस्थ व संन्यास इन चारों आश्रमों का वर्णन करनेवाली वेदवाणी के ( अनु ) = अनुसार ( प्रथन्ताम् ) = विस्तार को प्राप्त हों, अर्थात् ऐसे सन्तानों के कारण घरों की उन्नति-ही-उन्नति हो। 

    ८. ( स्वाहा ) = इसके लिए—ऐसी सन्तानों के निर्माण के लिए हम स्वार्थत्याग करें। स्वार्थत्याग से ही उत्तम सन्तान प्राप्त होगी।

    भावार्थ -

    भावार्थ — घर में सन्तान आये तो ऐसा अनुभव हो कि चन्द्रोदय हो गया है। वेदवाणी के अनुसार जीवन बनाने की हमारी प्रवृत्ति बढ़े।

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