यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 35
ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः
देवता - गृहपतिर्देवता
छन्दः - आर्षी उष्णिक्
स्वरः - गान्धारः
4
इन्द्र॒मिद्धरी॑ वह॒तोऽप्र॑तिधृष्टशवसम्। ऋषी॑णां च स्तु॒तीरुप॑ य॒ज्ञं च॒ मानु॑षाणाम्। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा षोड॒शिन॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा षोड॒शिने॑॥३५॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑म्। इत्। हरी॒ऽइति॒ हरी॑। व॒ह॒तः॒। अप्र॑तिधृष्टशवस॒मिति॒ अप्र॑तिऽधृष्टशवसम्। ऋषी॑णाम्। च॒। स्तु॒तीः। उप॑। य॒ज्ञम्। च॒। मानु॑षाणाम्। उपयामेत्यारभ्य पूर्ववत् ॥३५॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रमिद्धरी वहतोप्रतिधृष्टशवसम् । ऋषीणाञ्च स्तुतीरुप यज्ञञ्च मानुषाणाम् । उपयामगृहीतोसीन्द्राय त्वा षोडशिने ऽएष ते योनिरिन्द्राय त्वा षोडशिने ॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्रम्। इत्। हरीऽइति हरी। वहतः। अप्रतिधृष्टशवसमिति अप्रतिऽधृष्टशवसम्। ऋषीणाम्। च। स्तुतीः। उप। यज्ञम्। च। मानुषाणाम्। उपयामेत्यारभ्य पूर्ववत्॥३५॥
विषय - स्तुति+यज्ञ
पदार्थ -
१. गत मन्त्र के अनुसार इन्द्रियरूपी घोड़ों को शरीररूप रथ में जोतकर यात्रा में आगे बढ़नेवाला व्यक्ति ‘गोतम’ = प्रशस्तेन्द्रिय बनता है। इस ( इन्द्रम् ) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता और अतएव प्रशस्तेन्द्रिय गोतम को ( इत् ) = निश्चय से ( हरी ) = ये ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियरूप घोड़े ( वहतः ) = उद्दिष्ट स्थल पर पहुँचानेवाले होते हैं। ( अप्रतिधृष्टशवसम् ) = जितेन्द्रियता के कारण ही यह न धर्षणीय बलवाला है।
२. ये घोड़े ले-जाते हैं। कहाँ? ( ऋषीणां च स्तुतीः उप ) = तत्त्वद्रष्टाओं के स्तवनों के समीप तथा ( मानुषाणाम् ) = मानवहित में तत्पर लोगों के ( यज्ञम् उप ) = यज्ञ के समीप, अर्थात् यह जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञानियों के समान स्तुति करनेवाला बनता है। इसके जीवन में भक्ति और यज्ञ का समन्वय चलता है।
३. प्रभु अपने इस भक्त से कहते हैं कि तू ( उपयामगृहीतः असि ) = मेरे समीप रहकर यम-नियमों को स्वीकार करनेवाला बना है। ( इन्द्राय त्वा ) = मैंने तुझे इस संसार में इन्द्र बनने के लिए भेजा है। ( षोडशिने ) = सोलह कला सम्पूर्ण बनने के लिए भेजा है। ( एषः ते योनिः ) = यह शरीर ही तेरा घर है। इस घर में रहकर ( इन्द्राय त्वा षोडशिने ) = तुझे जितेन्द्रिय व सोलह कलाओं से युक्त बनना है।
भावार्थ -
भावार्थ — मेरा जीवन ‘इन्द्र’ का जीवन हो, जितेन्द्रिय बनकर मैं ऋषियों के समान स्तवन करनेवाला बनूँ और मानवहितकारी यज्ञों में प्रवृत्त होऊँ।
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