यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 20
ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृदगायत्री
स्वरः - षड्जः
1
अ॒ग्निर्मू॒र्द्धा दि॒वः क॒कुत्पतिः॑ पृथि॒व्याऽअ॒यम्। अ॒पा रेता॑सि जिन्वति॥२०॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निः। मू॒र्द्धा। दि॒वः। क॒कुत्ऽपतिः॑। पृ॒थि॒व्याः। अ॒यम्। अ॒पाम्। रेता॑सि। जि॒न्व॒ति॒ ॥२० ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निर्मूर्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्या अयम् । अपाँ रेताँसि जिन्वति ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्निः। मूर्द्धा। दिवः। ककुत्ऽपतिः। पृथिव्याः। अयम्। अपाम्। रेतासि। जिन्वति॥२०॥
विषय - शरीर में प्राण के समान राजा का वर्णन ।
भावार्थ -
( अग्निः ) अग्नि के समान प्रतापी पुरुष ( दिवः ) सूर्य के समान द्यौलोक, आकाश एवं ज्ञान विज्ञान का और विद्वान् उत्कृष्ट प्रजा का. ( पृथिव्याः ) पृथिवी का, पृथिवी पर के समस्त प्राणियों का ( ककुत् पति: ) महान् स्वामी, अर्थात् सर्वश्रेष्ठ पालक है । वह ही ( अपां ) आप्त प्रजाओं के ( रेतांसि ) वीर्यो, बलों को ( जिन्वति ) बढ़ाता है ।
आत्मा प्राणों का नेता होने से अग्नि है । वह सब का ( मृर्धा ) शिरोमणि, ( दिवः ) मस्तक से लेकर और ( पृथिव्याः ) चरणों तक का महान स्वामी है । वह ( अपां ) प्राणों के बलों की वृद्धि करता है। इसी प्रकार परमेश्वर सब का शिरोमणि आकाश और पृथिवी का स्वामी है । वह (अपां) मूलकारण प्रकृति के परमाणुओं में उत्पादक शक्ति को अधीन करता है । ( व्याख्या देखो ३ । १२ )
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निर्ऋषिः । निचृद् गायत्री । षड्जः ॥
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