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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 54
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    उद् बु॑ध्यस्वाग्ने॒ प्रति॑ जागृहि॒ त्वमि॑ष्टापू॒र्त्ते सꣳसृ॑जेथाम॒यं च॑। अ॒स्मिन्त्स॒धस्थे॒ऽअध्युत्त॑रस्मि॒न् विश्वे॑ देवा॒ यज॑मानश्च सीदत॥५४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्। बु॒ध्य॒स्व॒। अ॒ग्ने॒। प्रति॑। जा॒गृ॒हि॒। त्वम्। इ॒ष्टा॒पू॒र्त्ते इती॑ष्टाऽपू॒र्त्ते। सम्। सृ॒जे॒था॒म्। अ॒यम्। च॒। अ॒स्मिन्। स॒ध॒स्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे॑। अधि॑। उत्त॑रस्मि॒न्नित्युत्ऽत॑रस्मिन्। विश्वे॑। दे॒वाः॒। यज॑मानः। च॒। सी॒द॒त॒ ॥५४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते सँ सृजेथामयञ्च । अस्मिन्त्सधस्थेऽअध्युत्तरस्मिन्विस्वे देवा यजमानाश्च सीदत ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। बुध्यस्व। अग्ने। प्रति। जागृहि। त्वम्। इष्टापूर्त्ते इतीष्टाऽपूर्त्ते। सम्। सृजेथाम्। अयम्। च। अस्मिन्। सधस्थ इति सधऽस्थे। अधि। उत्तरस्मिन्नित्युत्ऽतरस्मिन्। विश्वे। देवाः। यजमानः। च। सीदत॥५४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 54
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    भावार्थ -
    हे (अग्ने) अग्रणी गृहपति के समान प्रजापालक राजन् ! तू ( उद्बुध्यस्व ) उठ, जाग, उत्कृष्ट धर्माचरण को जाने । ( त्वम् ) तू ( प्रति जागृहि ) प्रत्येक कार्य के लिये जागृत रह, प्रत्येक प्रजा के लिये सावधान होकर रह । ( त्वम् अयम् ) तू और यह प्रजाजन दोनों मिल- कर (इष्टापूर्ते) इष्ट अभिलषित सुख के देने वाले उत्तम कर्म, दान, यज्ञ, तप आदि और 'पूर्त' शरीर और गृह को पूर्ण करने वाले ब्रह्मचर्य और कृषि आदि कर्म, इनका ( संसृजेथाम् ) पालन करो और ( अस्मिन् ) इस ( उत्तरस्मिन् ) सर्वोत्कृष्ट ( सधस्थे ) एकत्र होने के स्थान, गृहस्थ और राष्ट्र में ( विश्वेदेवाः ) समस्त देवगण, विद्वान् और राजा लोग और यजमानः च) यजमान, दाता, गृहपति और राष्ट्रपति भी ( अधि- सीदत ) आकर विराजें। वे राष्ट्र पर अधिकार पदों को प्राप्त करें ।। शत० ८।६।३।२३ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निर्देवता । आर्षी त्रिष्टुप् । धैवतः।

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