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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 6
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - विराडभिकृतिः स्वरः - ऋषभः
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    र॒श्मिना॑ स॒त्याय॑ स॒त्यं जि॑न्व॒ प्रेति॑ना॒ ध॒र्म॑णा॒ धर्र्मं॑ जि॒न्वान्वि॑त्या दि॒वा दिवं॑ जिन्व स॒न्धिना॒न्तरि॑क्षेणा॒न्तरि॑क्षं जिन्व प्रति॒धिना॑ पृथि॒व्या पृ॑थि॒वीं जि॑न्व विष्ट॒म्भेन॒ वृष्ट्या॒ वृष्टिं॑ जिन्व प्र॒वयाऽह्नाह॑र्जिन्वानु॒या रात्र्या॒ रात्रीं॑ जिन्वो॒शिजा॒ वसु॑भ्यो॒ वसू॑ञ्जिन्व प्रके॒तेना॑दि॒त्येभ्य॑ऽआदि॒त्याञ्॑िजन्व॒॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    र॒श्मिना॑। स॒त्याय॑। स॒त्यम्। जि॒न्व॒। प्रेति॒नेति॒ प्रऽइति॑ना। धर्म॑णा। धर्म॑म्। जि॒न्व॒। अन्वि॒त्येत्यनु॑ऽइत्या। दि॒वा। दिव॑म्। जि॒न्व॒। स॒न्धिनेति॑ स॒म्ऽधिना॑। अ॒न्तरि॑क्षेण। अ॒न्तरि॑क्षम्। जि॒न्व॒। प्र॒ति॒धिनेति॑ प्रति॒ऽधिना॑। पृ॒थि॒व्या। पृ॒थि॒वीम्। जि॒न्व॒। वि॒ष्ट॒म्भेन॑। वृष्ट्या॑। वृष्टि॑म्। जि॒न्व॒। प्र॒वयेति॑ प्र॒ऽवया॑। अह्ना॑। अहः॑। जि॒न्व॒। अ॒नु॒येत्य॑नु॒ऽया। रात्र्या॑। रात्री॑म्। जि॒न्व॒। उ॒शिजा॑। वसु॑भ्य॒ इति॒ वसु॑ऽभ्यः। वसू॑न्। जि॒न्व॒। प्र॒के॒तेनेति॑ प्रऽके॒तेन॑। आ॒दि॒त्येभ्यः॑। आ॒दि॒त्यान्। जि॒न्व॒ ॥६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रश्मिना सत्याय सत्यञ्जिन्व प्रेतिना धर्मणा धर्मञ्जिन्वान्वित्या दिवा दिवञ्जिन्व सन्धिनान्तरिक्षेणान्तरिक्षञ्जिन्व प्रतिधिन्पृथिव्या पृथिवीञ्जिन्व विष्टम्भेन वृष्ट्या वृस्टिञ्जिन्व प्रवयाह्नाहर्जिन्वानुया रात्र्या रात्रीञ्जिन्वोशिजा वसुभ्यो वसून्जिन्व प्रकेतेनादित्येभ्यऽआदित्यञ्जिन्व ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    रश्मिना। सत्याय। सत्यम्। जिन्व। प्रेतिनेति प्रऽइतिना। धर्मणा। धर्मम्। जिन्व। अन्वित्येत्यनुऽइत्या। दिवा। दिवम्। जिन्व। सन्धिनेति सम्ऽधिना। अन्तरिक्षेण। अन्तरिक्षम्। जिन्व। प्रतिधिनेति प्रतिऽधिना। पृथिव्या। पृथिवीम्। जिन्व। विष्टम्भेन। वृष्ट्या। वृष्टिम्। जिन्व। प्रवयेति प्रऽवया। अह्ना। अहः। जिन्व। अनुयेत्यनुऽया। रात्र्या। रात्रीम्। जिन्व। उशिजा। वसुभ्य इति वसुऽभ्यः। वसून्। जिन्व। प्रकेतेनेति प्रऽकेतेन। आदित्येभ्यः। आदित्यान्। जिन्व॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 6
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    भावार्थ -
    ( सत्याय ) सत्यव्यवहार की वृद्धि के लिये नियुक्त ( रश्मिना ) सूर्य की किरणों के समान विवेक द्वारा छिपी बातों को भी प्रकाशित करने में समर्थ विवेकी पुरुष द्वारा ( सत्यं जिन्व ) सत्य व्यवहार की राष्ट्र में वृद्धि कर । अर्थात् उत्तम विवेकी न्याय कर्ता पुरुष को नियुक्त कर । २. ( धर्मणा' ) धर्म, प्रजा को व्यवस्थित करने वाले कानून के निमित्त ( प्रेतिना ) उत्तम विज्ञान युक्त, पुरुष द्वारा ( धर्म जिन्व ) धर्म या व्यवस्था, कानून को उन्नत कर । ३. ( दिवा ) धर्म, या ज्ञान के प्रकाश के लिये नियुक्त ( अन्वित्या ) अन्वेषण करने वाली समिति द्वारा ( दिवं जिन्व ) विज्ञान के और सत्य तत्वों की वृद्धि कर, । ४. ( अन्तरिक्षेण ) पृथ्वी और आकाश के बीच जिस प्रकार अन्तरिक्ष दोनों लोकों को मिलाता है उसी प्रकार दो राजाओं के बीच स्थित मध्यस्थ रूप से विद्यमान 'अन्तरिक्ष पद के कार्य के लिये नियुक्त (सन्धिना ) परस्पर के 'सन्धि' कराने वाले 'सन्धि' नामक अधिकारी से तू ( अन्तरिक्षं जिन्व ) उक्त अन्तरिक्ष पद को पुष्ट कर । ५ ( पृथिव्या ) पृथिवी के शासन के लिये नियुक्त ( प्रतिधिना ) अपने स्थान पर स्थापित प्रतिनिधि द्वारा अथवा ( पृथिव्या ) पृथिवी के शासनार्थ लोकवृत्त जानने के लिये नियुक्त ( प्रतिधिना ) प्रत्येक बात के पता लगाने वाले गुप्तचर द्वारा ( पृथिवीं जिन्व ) तू पृथिवी को अर्थात् पृथिवी निवासी प्रजाजन या अपने राष्ट्र भूमि की वृद्धि कर, उसको पुष्ट कर । ६. ( वृष्ट्या ) प्रजापर जलों की वर्षा करने के लिये जिस प्रकार जलों का स्तम्भन करने में समर्थ वायु अपने भीतर जल थाम लेता है उसी प्रकार प्रजापर पुनः अपने ऐश्वयों की वृष्टि करने के लिये ( विष्टम्भेन ) विविध उपायों से धनों को स्तम्भन या संग्रह करने वाले विभाग को नियुक्त करके उससे तू ( वृष्टि जिन्व ) सुखों के वर्षण की वृद्धि कर । ७. ( अन्हा ) सूर्य के समान तेजस्वी होकर राष्ट्र के कार्यों को चलाने के लिये ( प्रवयाः ) उत्कृष्ट तेजस्वी पुरुष को नियुक्त करके उससे ( अहः जिन्व ) सूर्य पद की वृद्धि कर । ८ ( रात्र्यां ) समस्त प्रजाओं के रमण करने, उनको विश्राम देने एवं रात्रि के समान शत्रुओं को भूमि पर सुला देने के लिये (अनुया ) चारों और डाकुओं के पीछा करने वाले विभाग द्वारा ( रात्री जिन्व ) तेजास्वनी रात्री, या रात्रि को राष्ट्र की रक्षा करने वाली संस्था को (जिन्व ) पुष्ट कर । ९ ( वसुभ्यः ) ऐश्वर्यों के प्राप्त करने के लिये और राष्ट्र में बसने वाले जनों के हित के लिये ( उशिजा ) धनादि के अभिलाषा करने वाले चलिंग विभाग द्वारा (वसुन्) प्रजा के सुखकारी अभि आदि शक्ति और समस्त पदार्थों को और प्रजा जनों को पुष्ट कर अथवा 'वसु' ब्रह्मचारियों के लिये कामना प्रकट करने वाले स्त्री वर्ग द्वारा ( वसून् ) बसु ब्रह्मचारी युवकों को (जिन्व) संतुष्ट कर। उनके विवाह आदि की उत्तम व्यवस्था कर । १०. ( आदित्येभ्यः ) आदित्य ब्रह्मचरियों के स्थापित ( प्रकेतेन उत्कृष्ट ज्ञान के साधन पुस्तकालय, विद्यालय आदि द्वारा ( आदित्यान् ) आदित्य, ज्ञाननिष्ठ पुरुषों को भी ( जिन्व ) पुष्ट कर।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - स्तोमभागा: विद्वांसो देवता: । विराडभिकृतिः । ऋषभः ।

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