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  • यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 27
    ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी जगती स्वरः - निषादः
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    जन॑स्य गो॒पाऽअ॑जनिष्ट॒ जागृ॑विर॒ग्निः सु॒दक्षः॑ सुवि॒ताय॒ नव्य॑से। घृ॒तप्र॑तीको बृह॒ता दि॑वि॒स्पृशा॑ द्यु॒मद्विभा॑ति भर॒तेभ्यः॒ शुचिः॑॥२७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जन॑स्य। गो॒पाः। अ॒ज॒नि॒ष्ट॒। जागृ॑विः। अ॒ग्निः। सु॒दक्ष॒ इति॑ सु॒ऽदक्षः॑। सु॒वि॒ताय॑। नव्य॑से। घृ॒तप्र॑तीक॒ इति॑ घृ॒तऽप्र॑तीकः। बृ॒ह॒ता। दि॒वि॒स्पृशेति॑ दिवि॒ऽस्पृशा॑। द्यु॒मदिति॑ द्यु॒ऽमत्। वि। भा॒ति॒। भ॒र॒तेभ्यः॑। शुचिः॑ ॥२७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जनस्य गोपाऽअजनिष्ट जागृविरग्निः सुदक्षः सुविताय नव्यसे । घृतप्रतीको बृहता दिविस्पृशा द्युमद्वि भाति भरतेभ्यः शुचिः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    जनस्य। गोपाः। अजनिष्ट। जागृविः। अग्निः। सुदक्ष इति सुऽदक्षः। सुविताय। नव्यसे। घृतप्रतीक इति घृतऽप्रतीकः। बृहता। दिविस्पृशेति दिविऽस्पृशा। द्युमदिति द्युऽमत्। वि। भाति। भरतेभ्यः। शुचिः॥२७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 15; मन्त्र » 27
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    भावार्थ -
    ( अग्निः ) अग्रणी नेता, राजा ( नव्यसे) अभी नये २ प्राप्त क्रिये ( सुविताय ) राष्ट्र के शासन कार्य के संचालन के लिये ( सुदक्षः ) उस बल और ज्ञानवान् होकर ( जागृविः ) सदा जागरणशील, सावधान होकर ( जनस्य गोपा ) समस्त प्रजाजन का पालक, रक्षक ( अननिष्ट) रहे। और वह ( वृतप्रतीक) मुखपर वृत लगाये ब्रह्मचारी के समान तेजस्वी स्वरूप होकर ( दिविस्पृशा ) आकाश में व्यापक ( घुमत् कान्तिमान तेजस्वी, ऐश्वर्य युक्त ( बृहता ) बड़े भारी राष्ट्र से सूर्य के समान तेज से ( शुचिः ) कान्तिमान्, निष्कपट, दोष रहित, शुद्ध होकर ( भरतेभ्यः ) प्रजा के भरण पोषण करने हारे विद्वान पुरुषों से ( द्युमत् ) तेजस्वी होकर ( विभाति) विविध ऐश्वयों से और तेजों गुणों से प्रकाशित होता है।

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