यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 62
ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
1
प्रोथ॒दश्वो॒ न यव॑सेऽवि॒ष्यन्य॒दा म॒हः सं॒वर॑णा॒द्व्यस्था॑त्। आद॑स्य॒ वातो॒ऽअनु॑ वाति शो॒चिरध॑ स्म ते॒ व्रज॑नं कृ॒ष्णम॑स्ति॥६२॥
स्वर सहित पद पाठप्रोथ॑त्। अश्वः॑। न। यव॑से। अ॒वि॒ष्यन्। य॒दा। म॒हः। सं॒वर॑णा॒दिति॑ स॒म्ऽवर॑णात्। वि। अस्था॑त्। आत्। अ॒स्य॒। वातः॑। अनु॑। वा॒ति॒। शो॒चिः। अध॑। स्म॒। ते॒। व्रज॑नम्। कृ॒ष्णम्। अ॒स्ति॒ ॥६२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रोथदश्वो न यवसेविष्यन्यदा महः सँवरणाद्व्यस्थात् । आदस्य वातोऽअनु वाति शोचिरध स्म ते व्रजनङ्कृष्णमस्ति ॥
स्वर रहित पद पाठ
प्रोथत्। अश्वः। न। यवसे। अविष्यन्। यदा। महः। संवरणादिति सम्ऽवरणात्। वि। अस्थात्। आत्। अस्य। वातः। अनु। वाति। शोचिः। अध। स्म। ते। व्रजनम्। कृष्णम्। अस्ति॥६२॥
विषय - वीर सेनापति की अश्व और अग्नि से तुलना ।
भावार्थ -
( अश्वः ) अश्व जिस प्रकार ( यवसे अविष्यन् ) घास के लिये जाना चाहता हुआ (प्रोथत् ) अपने नाक, नथुने फड़ फड़ा कर शब्द करता है और (यदा ) जब वह ( महः संवरणात् ) बड़े भारी अपने 'संवरण', बन्द रहने के स्थान अस्तबल से ( वि अस्थात् ) विविशेष रूप से जाता है तब भी हिनहिनाता है। उसके अनुकूल वायु बहता है । तब उसका ( ब्रजनं ) चाल ( कृष्णम् अस्ति ) बड़ा आकर्षक होता है । और जिस प्रकार वह ( अग्नि ) लौकिक अग्नि भी ( यवसे) अपने भक्ष्य काठ आदि में लगना चाहता हुआ ( प्रोथत् ) शब्द करता है । और जब (महःसंवरणात्) अपने बड़े भारी आच्छादक काष्ठ आदि से (प्र वि अस्थात्) प्रकट होता है तब भी शब्द करता है । ( आत् ) और उसके पश्चात् अग्नि के प्रकट हो जाने पर ( वातः वायु आस्य शोचिः अनुयाति ) वायु इसकी ज्वाला के अनुकूल बहता है उसको ज्वाला को बढ़ाता है तब (ते ब्रजन कृष्णम् अस्ति ) हे असे ! तेरा ब्रजन गमन का स्थान काला कोयला बन जाता है । इसी प्रकार हे राजन् ! तू भी ( अवसे अश्वः नः ) घास चारे के लिये लालायित अश्व के समान ( अविष्यन् ) राष्ट्र को प्राप्त करना अथवा शत्रु पर चढ़ाई के लिये जाना चाहता है तब और जब ( महः संवरणात् ) बड़े संवरण राजमहल आदि से निकल कर ( व्यस्थात् ) प्रस्थान करता है तब तू (प्रोथत् ) शब्दों को करता हुआ, अपनी आज्ञाएं देता हुआ और गाजे बाजे के साथ आगे बढ़ता हुआ जाता है | ( आत्) तब ( अस्य शोचि: अनु ) उस तेरे ज्वाला या तेज के अमुकूल ( वातः ) फोड़ डालने वाला वीर वायु के समान प्रबल बेगवान् शत्रु को तोड़ सैन्य (अंनुवाति ) तेरे पीछे पीछे जाता है( अध ) और तब ( ते ब्रजनं ) तेरा ऐसा प्रयाण करना ( कृष्णम्) सब के चित्रों के आकर्षण करने वाला और शत्रुओं के राज्य समृद्धि को खैंचलाने वाला या शत्रुओं को उखाड़ देने वाला ( अस्ति ) होता है । शत० ८ । ७ । ३ । ९-१२॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निर्देवता । विराट् त्रिष्टुप् । धैवता ॥ वसिष्ठ ऋषिः ।
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