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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 105 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 105/ मन्त्र 11
    ऋषिः - आप्त्यस्त्रित आङ्गिरसः कुत्सो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    सु॒प॒र्णा ए॒त आ॑सते॒ मध्य॑ आ॒रोध॑ने दि॒वः। ते से॑धन्ति प॒थो वृकं॒ तर॑न्तं य॒ह्वती॑र॒पो वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽप॒र्णाः । ए॒ते । आ॒स॒ते॒ । मध्ये॑ । आ॒ऽरोध॑ने । दि॒वः । ते । से॒ध॒न्ति॒ । प॒थः । वृक॑म् । तर॒न्त॒म् । य॒ह्वतीः॑ । अ॒पः । वि॒त्तम् । मे॒ । अ॒स्य । रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुपर्णा एत आसते मध्य आरोधने दिवः। ते सेधन्ति पथो वृकं तरन्तं यह्वतीरपो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽपर्णाः। एते। आसते। मध्ये। आऽरोधने। दिवः। ते। सेधन्ति। पथः। वृकम्। तरन्तम्। यह्वतीः। अपः। वित्तम्। मे। अस्य। रोदसी इति ॥ १.१०५.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 105; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरेतैः सह प्रजापुरुषाः कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे प्रजास्था मनुष्या यथैते सुपर्णा दिवो मध्य आरोधने आसते। यथा च ते तरन्तं वृकं प्रक्षिप्य यह्वतीरपः पथश्च सेधन्ति तथैव यूयं राजकर्माणि सेवध्वम्। अन्यत्पूर्ववत् ॥ ११ ॥

    पदार्थः

    (सुपर्णाः) सूर्यस्य किरणाः (एते) (आसते) मध्ये (आरोधने) (दिवः) सूर्यप्रकाशयुक्तस्याकाशस्य (ते) (सेधन्ति) निवर्त्तयन्तु (पथः) मार्गान् (वृकम्) विद्युतम् (तरन्तम्) संप्लावकम् (यह्वतीः) यह्वान् महत इवाचरन्तीः। यह्व इति महन्ना०। निघं० ३। ३। यह्व शब्दादाचारे क्विप्। (अपः) जलानि प्राणवती प्रजा वा अन्यत् पूर्ववत् ॥ ११ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथेश्वरनियमे सूर्यकिरणादयः पदार्था यथावद्वर्त्तन्ते तथैव प्रजास्थैर्युष्माभिरपि राजनीतिनियमे च वर्त्तितव्यम्। यथैते सभाद्यध्यक्षादयो दुष्टान् मनुष्यान् निवर्त्य प्रजा रक्षन्ति तथैव युष्माभिरप्येते सदैवेर्ष्यादीन्निवर्त्य रक्ष्याः ॥ ११ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर इन राजपुरुषों के साथ प्रजापुरुष कैसे वर्त्ताव रक्खें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे प्रजाजनो ! आप लोग जैसे (एते) ये (सुपर्णाः) सूर्य्य की किरणें (दिवः) सूर्य्य के प्रकाश से युक्त आकाश के (मध्ये) बीच (आरोधने) रुकावट में (आसते) स्थिर हैं और जैसे (ते) वे (तरन्तम्) पारकर देनेवाली (वृकम्) बिजुली को गिराके (यह्वतीः) बड़ों के वर्त्ताव रखते हुए (अपः) जलों और (पथः) मार्गों को (सेधन्ति) सिद्ध करते हैं, वैसे ही आप लोग राज कामों को सिद्ध करो। और शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के तुल्य जानना चाहिये ॥ ११ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ईश्वर के नियमों में सूर्य की किरणें आदि पदार्थ यथावत् वर्त्तमान हैं, वैसे ही तुम प्रजा-पुरुषों को भी राजनीति के नियमों में वर्त्तना चाहिये। जैसे सभाध्यक्ष आदि जन दुष्ट मनुष्यों को निवृत्ति करके प्रजाजनों की रक्षा करते हैं, वैसे तुम लोगों को भी ये ईर्ष्या, अभिमान आदि दोषों को निवृत्त करके रक्षा करने योग्य हैं ॥ ११ ॥

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    विषय

    प्रकाश व लोभनिवृत्ति

    पदार्थ

    १. (एते) = गतमन्त्र में वर्णित ये प्राण (सुपर्णाः) = उत्तमता से हमारा पालन व पूरण करनेवाले हैं । जब (आरोधने) = प्राणायाम के द्वारा निरुद्ध होने पर ये (मध्ये आसते) = शरीर के अन्दर ही आसीन होते हैं तब हमारे जीवन को (दिवः) = अत्यन्त दीप्तिवाला बनाते हैं । इनके कारण शरीर तेजस्विता से चमकता है , हृदय नैर्मल्य से चमक उठता है और मस्तिष्क ज्ञान की ज्योतिवाला होता है । 

    २. (ते) = वे प्राण हमारे (पथः) = मार्ग से (वृकम्) = लोभ की वृत्ति को (सेधन्ति) = रोकनेवाले होते हैं , उस लोभ को जोकि (यह्वतीः) = प्रभु की ओर जानेवाली और पुकारनेवाली [यात , हूत] (अपः) = प्रजाओं को भी (तरन्तम्) = आक्रान्त करता है [Subdue , destroy , to become master of] । यह लोभ बड़े - बड़े व्यक्तियों को भी अपना शिकार बना लेता है । हम प्राणसाधना के द्वारा इससे अभिभूत होने से बच जाते हैं । प्रभु कहते हैं कि (मे अस्य) = मेरी इस प्राण - महत्त्व की बात को (रोदसी) = सब व्यक्ति (वित्तम्) = जान लें । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से जीवन प्रकाशमय बनता है और लोभ की वृत्ति दूर होती है । 
     

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    विषय

    नक्षत्रों और चन्द्रमा का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( दिवः मध्ये सुपर्णाः ) जिस प्रकार आकाश के बीच में किरणें ( आरोधने ) किसी रुकावट के आजाने पर ( आसते ) उसी पर पड़ती हैं । इसी रीति से ( ते ) वे सूर्य की किरणें ( पथः तरन्तम् ) क्रान्तिमार्गों पर गति करते हुए चन्द्र को भी प्राप्त होती हैं। और वे ही सूर्य की किरणें ( यह्वतीः अपः ) विशाल समुद्र के जलों पर भी पड़ती हैं इस प्रकार से वे चन्द्र को प्रकाशित करती हैं और उदय और अस्त कालों में जलपृष्ठ पर भी अद्भुत दृश्य उत्पन्न करती हैं। उसी प्रकार ( ऐते सुपर्णाः ) ये उत्तम रीति से पालन पोषण करने के साधनों वाले, उत्तम ज्ञानों से युक्त विद्वान् जन और उत्तम यान साधन रथों वाले वीर जन ( दिवः आरोधने ) विजयेच्छु पर राजा के ( आरोधने ) सकने के निमित्त ( मध्ये आसते ) बीच ही में आखड़े हों । ( ते ) वे ( पथः तरन्तम् ) मार्गों पर जाते हुए ( वृकं ) चोर पुरुष को ( सेधन्ति ) पकड़ लेवें । और ( यह्वतीः अपः तरन्तं ) बड़ी भारी प्रजाओं के भीतर जाते हुए, या बड़ी २ नदियों को तरते हुए ( वृकं ) चोर पुरुष को भी ( सेधन्ति ) पकड़ें । अर्थात् वे सूने रास्ते चलते हुए या भीड़ में छुपते हुए अपराधी को भी पकड़ें । हे राजा प्रजाजनो ! और गुरु शिष्यो ! आप ( रोदसी ) राज प्रजावर्गों के विषय में यही व्यवहार जानो । ( ३ ) ( सुपर्णाः ) वे उत्तम ज्ञानवान् तथा तेजस्वी पुरुष ( दिवः मध्ये आरोधने ) मोक्ष ज्ञान के बीच में संयमपूर्वक दमन कर्म में निष्ठ होकर विराजते हैं । ( पथः तरन्तं वृकं ) नाना मार्गो में जाते हुए, तथा ( यह्वतीः अपः तरन्तं ) बड़े बलशालीन प्राणों में गति करने वाले ( वृकं ) सब दुःखों के छेदक वज्ररूप आत्मा को ( सेधन्ति ) प्राप्त होते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-९ आप्त्यस्त्रित ऋषिः आंङ्गिरसः कुत्सा वा ॥ विश्वे देवा देवता ॥ छन्दः- १, २,१६, १७ निचृतपङ्क्तिः । ३, ४, ६, ९, १५, १८ विराट्पंक्तिः। ८, १० स्वराट् पंक्तिः । ११, १४ पंक्तिः । ५ निचृद्बृहती। ७ भुरिग्बृहती । १३ महाबृहती । १६ निचृत्त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सूर्याची किरणे इत्यादी पदार्थ ईश्वराच्या नियमाप्रमाणे यथायोग्य चालतात. तसेच प्रजेनेही राजनियमाप्रमाणे वागावे. जसे सभाध्यक्ष इत्यादी लोक दुष्ट माणसांचा नाश करून प्रजेचे रक्षण करतात तसे तुम्हीही ईर्षा, अभिमान इत्यादी दोषांचा नाश करून सर्वांचे रक्षण करावे. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The waves of solar energy abide in the midst of the sun’s gravity. They being most potent regulate the paths and velocities of electricity and the formation and movement of waters. May the heaven and earth know this mystery and reveal it to me.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should men of the public deal with them (The officers of the State ) is taught in the 11th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The rays of the sun abide in the surrounding Centre of heaven; they drive back the wolf of darkness having cast the light. In the same manner, you should also discharge your duties regarding the administration of the State.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (सुपर्णा:) सूर्यस्य किरणा: = The rays of the sun. (वृकम्) विद्युतम् = Lightning. (यह्वती: ) यह्नतः महतः इव आचरन्ती यह्न इति महन्नाम (निघ० ३.३) यह व शब्दादाचारे क्विप् | = Great.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As under the Laws of God, the rays of the sun and other things remain in proper order, in the same manner, you who belong to the public should be law-abiding. As the President of the Assembly and other officers of the State keep away wicked persons and protect them, having given up all jealousy, envy, distrust etc.

    Translator's Notes

    सुपर्णा इति रश्मिनाम (निघ० १.५ ) वृक इति पदनाम (निघ० ४.२) पद- गतौ गतेस्त्रयोऽर्था:ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र प्राप्त्यर्थग्रहणात् जलसुखप्रापिका विद्युतम् |

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