ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 105/ मन्त्र 12
ऋषिः - आप्त्यस्त्रित आङ्गिरसः कुत्सो वा
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
नव्यं॒ तदु॒क्थ्यं॑ हि॒तं देवा॑सः सुप्रवाच॒नम्। ऋ॒तम॑र्षन्ति॒ सिन्ध॑वः स॒त्यं ता॑तान॒ सूर्यो॑ वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥
स्वर सहित पद पाठनव्य॑म् । तत् । उ॒क्थ्य॑म् । हि॒तम् । देवा॑सः । सु॒ऽप्र॒वा॒च॒नम् । ऋ॒तम् । अ॒र्ष॒न्ति॒ सिन्ध॑वः । स॒त्यम् । त॒ता॒न॒ । सूर्यः॑ । वि॒त्तम् । मे॒ । अ॒स्य । रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नव्यं तदुक्थ्यं हितं देवासः सुप्रवाचनम्। ऋतमर्षन्ति सिन्धवः सत्यं तातान सूर्यो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥
स्वर रहित पद पाठनव्यम्। तत्। उक्थ्यम्। हितम्। देवासः। सुऽप्रवाचनम्। ऋतम्। अर्षन्ति सिन्धवः। सत्यम्। ततान। सूर्यः। वित्तम्। मे। अस्य। रोदसी इति ॥ १.१०५.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 105; मन्त्र » 12
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरेतान् प्रति विद्वांसः किं किमुपदिशेयुरित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे देवासो भवन्तो यथा सिन्धवः सत्यमर्षन्ति सूर्यश्च ततान तथा यदृतं नव्यमुक्थ्यं हितं तत् सुप्रवाचनमर्षन्तु। अन्यत् पूर्ववत् ॥ १२ ॥
पदार्थः
(नव्यम्) उत्तमेषु नवेषु नूतनेषु व्यवहारेषु भवम् (तत्) (उक्थ्यम्) उक्थेषु प्रशंसनीयेषु (भवम्) (हितम्) सर्वाविरुद्धम् (देवासः) विद्वांसः (सुप्रवाचनम्) सुष्ठ्बध्यापनमुपदेशनं यथा तथा (ऋतम्) वेदसृष्टिक्रमप्रत्यक्षादिप्रमाणविद्वदाचरणानुभवस्वात्मपवित्रतानामनुकूलम् (अर्षन्ति) प्रापयन्तु। लेट्प्रयोगोऽयम्। (सिन्धवः) यथा समुद्राः (सत्यम्) जलम्। सत्यमित्युदकना०। निघं० १। १२। (तातान) विस्तारयति। तुजादित्वाद्दीर्घः। (सूर्य्यः) सविता। अन्यत् पूर्ववत् ॥ १२ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सागरेभ्यो जलमुत्थितमूर्ध्वं गत्वा सूर्यातपेन वितत्य प्रवर्ष्य च सर्वेभ्यः प्रजाजनेभ्यः सुखं प्रयच्छति तथा विद्वज्जनैर्नित्यनवीनविचारेण गूढा विद्या ज्ञात्वा प्रकाश्य सकलहितं संपाद्य सत्यधर्मं विस्तार्य प्रजाः सततं सुखयितव्याः ॥ १२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वान् जन इनके प्रति क्या-क्या उपदेश करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (देवासः) विद्वानो ! आप जैसे (सिन्धवः) समुद्र (सत्यम्) जल की (अर्षन्ति) प्राप्ति करावें और (सूर्य्यः) सूर्य्यमण्डल (तातान) उसका विस्तार कराता अर्थात् वर्षा कराता है वैसे जो (ऋतम्) वेद, सृष्टिक्रम, प्रत्यक्षादि प्रमाण, विद्वानों के आचरण, अनुभव अर्थात् आप ही आप कोई बात मन से उत्पन्न होना और आत्मा की शुद्धता के अनुकूल (नव्यम्) उत्तम नवीन-नवीन व्यवहारों और (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय वचनों में होनेवाला (हितम्) सबका प्रेमयुक्त पदार्थ (तत्) उसको (सुप्रवाचनम्) अच्छी प्रकार पढ़ाना, उपदेश करना जैसे बने वैसे प्राप्त कीजिये। शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के समान जानना चाहिये ॥ १२ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे समुद्रों के जल उड़कर ऊपर को चढ़ा हुआ सूर्य्य के ताप से फैलकर, बरस के, सब प्रजाजनों को सुख देता है, वैसे विद्वान् जनों को नित्य नवीन-नवीन विचार से गूढ़ विद्याओं को जान और प्रकाशित कर सबके हित का संपादन और सत्य धर्म्म के प्रचार से प्रजा को निरन्तर सुख देना चाहिये ॥ १२ ॥
विषय
ऋत व सत्य
पदार्थ
१. हे (देवासः) = देववृत्ति के पुरुषो ! गत मन्त्रानुसार आप प्राणसाधना आदि उत्तम कर्मों में लग सको (तत्) = इस कारण से (नव्यम्) = प्रशंसनीय (उक्थ्यम्) = प्रभु के स्तवन व कर्तव्यों के प्रतिपादन में उत्तम (सुप्रवाचनम्) = उत्तम पुण्य वाचनवाला अथवा अतिसरल यह वेदज्ञान (हितम्) = आपके हृदयों में स्थापित किया गया है [तच्चक्षुर्देवहितम्] । यह वेदज्ञान भ्रान्तिशून्य होने से प्रशंसनीय है । इसके द्वारा प्रभु का स्तवन उत्तमता से होता है , अतः उक्थ्य है । सरल व अव्यर्थ होने से ‘सुप्रवाचन’ है ।
२. इसके अनुसार जीवन को बनाते हुए (सिन्धवः) = स्यन्दनशील रेतः कणों को शरीर में सुरक्षित करके शक्ति के पुञ्ज बननेवाले लोग (ऋतम्) = ऋत को (अर्षन्ति) = प्राप्त होते हैं । सूर्य - चन्द्रादि के समान बिल्कुल ठीक समय पर कार्यों को करना ही ऋत है । जो व्यक्ति शक्ति का पुञ्ज बनता है , वही ऋत का पालन कर पाता है । वस्तुतः ऋत का पालन शक्तिपुञ्ज बनने में सहायक भी होता है । ऋत और शक्ति का परस्पर सम्बन्ध है । ऋत के पालन से शक्ति की प्राप्ति और शक्ति - प्राप्ति से ऋत का पालन होता है ।
३. शक्ति प्राप्त करके यह व्यक्ति इस शक्ति को , ज्ञानाग्नि का ईंधन बनाकर अपनी ज्ञानाग्नि को दीप्त करता है । ज्ञान से यह सूर्य के समान चमकता है और (सूर्यः) = ज्ञान का सूर्य बनकर (सत्यं तातान) = सत्य का विस्तार करता है । ज्ञानी के जीवन में असत्य का प्रवेश नहीं होता । ज्ञान जीवन को पवित्र बनानेवाला है । इस प्रकार शक्ति को शरीर में सुरक्षित करनेवाले व्यक्ति के जीवन में सम्पूर्ण शारीरिक क्रियाओं में ऋत का दर्शन होता है और अध्यात्म - क्रियाओं व व्यवहार में सत्य का । प्रभु कहते हैं कि (रोदसी) = द्यावापृथिवी , अर्थात् सम्पूर्ण संसार में मेरी (अस्य) = इस बात को (वित्तम्) = जाने कि ‘ऋत व सत्य’ के पालन में ही कल्याण है ।
भावार्थ
भावार्थ - परमात्मा ने मनुष्यों के हृदय में वेदज्ञान स्थापित किया है । इसके अनुसार जीवन बनाते हुए हम ऋत और सत्य का आचरण करें ।
विषय
उसी प्रकार ज्ञानियों का परमेश्वर दर्शन ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( सिन्धवः ) नदियें ( ऋतम् ) जल बहाती हैं और ( सूर्यः ) सूर्य जिस प्रकार ( सत्यं तातान ) सत्य अर्थात् सबको साक्षात् दीखने वाला अपना प्रकाश सबके हित के लिये फैला देता है, वह प्रकाश को किसी से छिपाकर नहीं रखता है उसी प्रकार हे (देवासः) विद्या के देनेवाले विद्वान् पुरुषो ! और जिज्ञासु शिष्यो ! आप लोग (तत्) उस परम ( नव्यम् ) अति स्तुत्य, सद्यः प्राप्त, ( हितम् ) अपने में धारित और सबके हितकारी, लाभदायक ( उक्थ्यम् ) वेदमन्त्रों में विद्यमान ( सुप्रवाचनम् ) उत्तम रीति से उपदेश करने योग्य ( सत्यं ऋतम् ) सत्य वेद ज्ञान को ( अर्षन्ति ) सबको प्रदान करो, ग्रहण करो और उसको फैलाओ । हे ( रोदसी ) स्त्री पुरुषो ! हे राज प्रजावर्गो ! हे गुरुशिष्यो ! ( मे अस्य वित्तम् ) मेरे इस उपदेश का ज्ञान करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-९ आप्त्यस्त्रित ऋषिः आंङ्गिरसः कुत्सा वा ॥ विश्वे देवा देवता ॥ छन्दः- १, २,१६, १७ निचृतपङ्क्तिः । ३, ४, ६, ९, १५, १८ विराट्पंक्तिः। ८, १० स्वराट् पंक्तिः । ११, १४ पंक्तिः । ५ निचृद्बृहती। ७ भुरिग्बृहती । १३ महाबृहती । १६ निचृत्त्रिष्टुप् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे समुद्रातील जल सूर्याच्या उष्णतेने प्रसृत होऊन वर जाते व वृष्टी होऊन सर्व प्रजेला सुख देते तसे विद्वानांनी नित्य नवीन नवीन विचाराने गूढ विद्या जाणून प्रकाशित करून सर्वांचे हित साधावे व सत्य धर्माच्या प्रचाराने प्रजेला निरंतर सुख द्यावे. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O men of knowledge and generosity, this new, laudable, sacred, useful and secret principle of nature’s truth and law of physical evolution is worthy of study, discussion and development. The rivers flow and the sea rolls the waters while the sun creates and expands the vapours and again sucks up the vapours. This mysterious cycle may the heaven and earth know and reveal to us.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should learned persons teach the people is taught in the 12th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O enlightened persons, as rivers urge on the waters, and the sun diffuses his constant light, in the same manner, you should teach and preach the eternal Truth which is in accordance with the Vedas, natural laws, Pratyaksha and other Pramanas, (authorities) the conduct of the learned and the wise, experience, conscience and purity, are praiseworthy and beneficial to all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(ऋतम्) वेदसृष्टिक्रमप्रत्यक्षादिप्रमाणविद्वदाचरणानुभवस्वात्मपवित्रतानामनुकूलम् = That Truth which is in accordance with the Vedas, natural laws, pratyaksha (Perception) and other authorities, the conduct of the learned, experience, conscience and purity. (अर्षन्ति) प्रापयन्तु । लेट प्रयोगोऽयम = Cause to attain. (सत्यम्) जलम् । सत्यमित्युदकनाम (निघ० १.१२ ) = Water.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the water of the ocean gives happiness to all by going up in the sky and then raining down, in the same manner, learned persons should acquire the knowledge of subtle sciences thoughtfully, should bring about the welfare of all by manifesting it. They should preach and propagate the true Dharma and should make all people happy.
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