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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 105 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 105/ मन्त्र 16
    ऋषिः - आप्त्यस्त्रित आङ्गिरसः कुत्सो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अ॒सौ यः पन्था॑ आदि॒त्यो दि॒वि प्र॒वाच्यं॑ कृ॒तः। न स दे॑वा अति॒क्रमे॒ तं म॑र्तासो॒ न प॑श्यथ वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒सौ । यः । पन्थाः॑ । आ॒दि॒त्यः । दि॒वि । प्र॒ऽवाच्य॑म् । कृ॒तः । न । सः । दे॒वाः॒ । अ॒ति॒ऽक्रमे॑ । तम् । म॒र्ता॒सः॒ । न । प॒श्य॒थ॒ । वि॒त्तम् । मे॒ । अ॒स्य । रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असौ यः पन्था आदित्यो दिवि प्रवाच्यं कृतः। न स देवा अतिक्रमे तं मर्तासो न पश्यथ वित्तं मे अस्य रोदसी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असौ। यः। पन्थाः। आदित्यः। दिवि। प्रऽवाच्यम्। कृतः। न। सः। देवाः। अतिऽक्रमे। तम्। मर्तासः। न। पश्यथ। वित्तम्। मे। अस्य। रोदसी इति ॥ १.१०५.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 105; मन्त्र » 16
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथायं मार्गः कीदृश इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे देवा असावादित्यो यः पन्था दिवि प्रवाच्यं कृतः स युष्माभिर्नातिक्रमेऽतिक्रमितुं न उल्लङ्घितुं न योग्यः। हे मर्त्तासस्तं पूर्वोक्तं यूयं न पश्यथ। अन्यत् पूर्ववत् ॥ १६ ॥

    पदार्थः

    (असौ) (यः) (पन्थाः) वेदप्रतिपादितो मार्गः (आदित्यः) विनाशरहितः सूर्य्यवत्प्रकाशकः (दिवि) सर्वविद्याप्रकाशे (प्रवाच्यम्) प्रकृष्टतया वक्तुं योग्यं यथास्यात्तथा (कृतः) नितरां स्थापितः (न) निषेधे (सः) (देवाः) विद्वांसः (अतिक्रमे) अतिक्रमितुमुल्लङ्घितुम् (तम्) मार्गम् (मर्त्तासः) मरणधर्माणः (न) निषेधे (पश्यथ) (वित्तं, मे, अस्य) इति पूर्ववत् ॥ १६ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्यो वेदोक्तो मार्गः स एव सत्य इति विज्ञाय सर्वाः सत्यविद्याः प्राप्य सदानन्दितव्यम्। सोऽयं विद्वद्भिर्नैव कदाचित् खण्डनीयो विद्यया विनाऽयं विज्ञातोऽपि न भवति ॥ १६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब यह मार्ग कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (देवाः) विद्वान् लोगो ! (असौ) यह (आदित्यः) अविनाशी सूर्य्य के तुल्य प्रकाश करनेवाला (यः) जो (पन्थाः) वेद से प्रतिपादित मार्ग (दिवि) समस्त विद्या के प्रकाश में (प्रवाच्यम्) अच्छे प्रकार से कहने योग्य जैसे हो वैसे (कृतः) ईश्वर ने स्थापित किया (सः) वह तुम लोगों को (अतिक्रमे) उल्लङ्घन करने योग्य (न) नहीं है। हे (मर्त्तासः) केवल मरने-जीनेवाले विचाररहित मनुष्यो ! (तम्) उस पूर्वोक्त मार्ग को तुम (न) नहीं (पश्यथ) देखते हो। शेष मन्त्रार्थ पूर्व के तुल्य जानना चाहिये ॥ १६ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि जो वेदोक्त मार्ग है, वही सत्य है, ऐसा जान और समस्त सत्यविद्याओं को प्राप्त होकर सदा आनन्दित हों, सो यह वेदोक्त मार्ग विद्वानों को कभी खण्डन करने योग्य नहीं, और यह मार्ग विद्या के विना विशेष जाना भी नहीं जाता ॥ १६ ॥

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    विषय

    देवयान का पथिक बनना

    पदार्थ

    १. संसार में तीन मार्ग हैं । पहला पृथिवीलोक पर चलनेवालों का ‘अग्नि’ का मार्ग है । पृथिवीलोक पर चलनेवाले , अर्थात् पार्थिव भोगों में मस्त । इनके यहाँ सदा चूल्हा जलता रहता है । ये खाने - पीने में ही लगे रहते हैं । एवं , इनका मार्ग ही ‘अग्नि’ नामवाला हो गया । ये पैदा होते हैं , कुछ देर खा - पीकर मर जाते हैं , अतः ‘जायस्व म्रियस्व’ योनिवाले कहलाते हैं । दूसरा मार्ग अन्तरिक्षलोक में चलनेवालों का है । यह ‘चन्द्र’ - मार्ग है । ये सद्गृहस्थ बनकर भोगों को जुटाते हुए भी उनमें आसक्त नहीं हो जाते । भोगों में रत रहते हुए भी भोगी नहीं बन जाते । ये उत्तम सन्तानों का निर्माण करके ‘पिता’ बनते हैं । इनका मार्ग ‘पितृयान’ - मार्ग कहलाता है । ये चन्द्रलोक में जन्म लेते हैं , अतः ये अन्तरिक्षलोक से जानेवाले कहलाते हैं । तीसरा मार्ग देवों का है । ये सम्पत्ति का त्याग व दान करके ज्ञानज्योति से दीप्त होते हैं और औरों को जान से द्योतित करते हैं । इनका मार्ग प्रकाशमय होने से द्युलोक का मार्ग कहलाता है । यही आदित्य मार्ग है । इस मार्ग से जाते हुए ये व्यक्ति उस स्वर्ज्योति प्रभु को प्राप्त करनेवाले होते हैं । “सुर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति यत्रामृतः स पुरुषो व्ययात्मा” - इस देवयान का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि (असौ) = वह (यः) = जो (पन्थाः) = मार्ग (आदित्यः) = आदित्य नामवाला है , (दिवि) = द्युलोक में (प्रवाच्यं कृतः) = इस रूप में बनाया गया है कि यह अत्यन्त स्तुति के योग्य होता है । हे (देवाः) = देवो ! (सः) = वह मैं (न अतिक्रमे) = उस मार्ग का उल्लंघन नहीं करता । मैं इसी देवयान मार्ग पर चलता हूँ । यह मार्ग द्युलोक में बनाया गया है । इसका भाव यही है कि यह ज्ञानप्रधान है , ज्ञानमार्ग है । इस मार्ग पर चलनेवाले ज्ञानी पुरुष के कर्म सदा पवित्र होते हैं । शुद्ध हुआ - हुआ यह उस शुद्ध प्रभु को पानेवाला बनता है । 

    २. प्रभु कहते हैं कि (मर्तासः) = पार्थिव भोगों के पीछे मरनेवाले पुरुषो ! आप (तम्) = उस देवयान मार्ग को , आदित्य - मार्ग को (न पश्यथ) = नहीं देखते हो । आपके क्षेत्र से वह दूर है । (मे अस्य) = मेरी इस बात को (रोदसी) = द्युलोक व पृथिवीलोक , अर्थात् सारा जगत् (वित्तम्) = जान ले । हमें चाहिए कि हम इस बात को भली - भाँति समझ लें कि पार्थिव मार्गों में चलते हुए हम कभी देवयान के पथिक न बन पाएंगे । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम ‘जायस्व म्रियस्व’ व पितृयाण - इन दोनों मार्गों से ऊपर उठकर देवयान के पथिक बनें । 
     

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    विषय

    वेदोपदिष्ट मार्ग ।

    भावार्थ

    ( दिवि आदित्यः ) आकाश में या प्रकाश के निमित्त जिस प्रकार सूर्य है उसी प्रकार ( यः ) जो ( असौ ) वह परम उत्कृष्ट ( पन्थाः ) मार्ग मुमुक्षु और जिज्ञासु जनों को प्राप्त करने योग्य ( आदित्यः ) सबके स्वीकारने योग्य, प्रकाशमान अखण्ड ब्रह्म से उत्पन्न ( दिवि ) ज्ञान-प्रकाश के प्राप्त करने के लिये ( प्रवाच्यम् कृतः ) उपदेश प्रवचन द्वारा गुरु शिष्य परम्परा से उपदेश किया जाता है, हे ( देवाः ) विद्वान् पुरुषो ! हे जिज्ञासुओ ! ( सः ) वह महान् ज्ञानमार्ग, वेद प्रतिपादित मार्ग ( अतिक्रमे न ) कभी उल्लंघन करने योग्य नहीं है । हे ( मर्त्तासः ) मरणशील, दुखी पुरुषो ! तुम लोग ( तं न पश्यथ ) उसको नहीं देख रहे हो । आओ उसके साक्षात् करने का यत्न करो । ( वित्तं मे० ) इत्यादि पूर्ववत् ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-९ आप्त्यस्त्रित ऋषिः आंङ्गिरसः कुत्सा वा ॥ विश्वे देवा देवता ॥ छन्दः- १, २,१६, १७ निचृतपङ्क्तिः । ३, ४, ६, ९, १५, १८ विराट्पंक्तिः। ८, १० स्वराट् पंक्तिः । ११, १४ पंक्तिः । ५ निचृद्बृहती। ७ भुरिग्बृहती । १३ महाबृहती । १६ निचृत्त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वेदोक्त मार्गच सत्य आहे, हे माणसांनी जाणून व संपूर्ण सत्य विद्यांना प्राप्त करून सदैव आनंदित राहावे. त्यासाठी या वेदोक्त मार्गाचे विद्वानांनी खंडन करू नये. हा मार्ग विद्येशिवाय विशेष जाणता येत नाही. ॥ १६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    That is the path which is blazing glorious as the sun in heaven, eternal and imperishable, created in the light of eternal knowledge, Veda, to be meditated on, spoken of and followed. Not even the greatest in nature or humanity can exceed or violate it. O mortal men and women, you do not see it. I pray, may the heaven and earth know and reveal it to you and me.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is this Vedic Path is taught in the16th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O enlightened persons! This is the indestructible Vedic Path that illuminates all like the sun made in the light of all knowledge and most admirable. It is never to be transgressed by you. O learned men O mortals, you behold it not. The rest as before.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (आदित्यः) विनाशरहितः, सूर्यवत् प्रकाशक: = Indestuctible and illuminator of all like the sun. (दिवि) सर्वविद्याप्रकाशे = In the light of the knowledge of all sciences.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should always enjoy bliss by knowing that the Path enunciated by the Vedas is absolutely true and they This true should acquire the knowledge of all sciences. This true Vedic Path should be transgressed by any one. Without wisdom or knowledge, it cannot even be known.

    Translator's Notes

    Sayanacharya, Wilson Griffith and almost all other interpreters of the Rigveda have taken आदित्य: for the sun here. But Shri Kapali Shastri in his commentary on the Mantra has rightly remarked. "नायं बाह्यः सूर्यः, लौकिकश्चेत् सर्वेऽपि मर्त्याः पश्येयुः ।” i. e. It is not the outer Soorya (sun) that is meant here, otherwise all men with eyes could see him. Rishi Dayananda Saraswati is therefore right in taking it to mean indestructible Vedic Path, which can not be seen or properly known by ignorant mortals.

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