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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 105 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 105/ मन्त्र 2
    ऋषिः - आप्त्यस्त्रित आङ्गिरसः कुत्सो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अर्थ॒मिद्वा उ॑ अ॒र्थिन॒ आ जा॒या यु॑वते॒ पति॑म्। तु॒ञ्जाते॒ वृष्ण्यं॒ पय॑: परि॒दाय॒ रसं॑ दुहे वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अर्थ॑म् । इत् । वै । ऊँ॒ इति॑ । अ॒र्थिनः॑ । आ । जा॒या । यु॒व॒ते॒ । पति॑म् । तु॒ञ्जाते॒ इति॑ । वृष्ण्य॑म् । पयः॑ । प॒रि॒ऽदाय॑ । रस॑म् । दु॒हे॒ । वि॒त्तम् । मे॒ । अ॒स्य । रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अर्थमिद्वा उ अर्थिन आ जाया युवते पतिम्। तुञ्जाते वृष्ण्यं पय: परिदाय रसं दुहे वित्तं मे अस्य रोदसी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अर्थम्। इत्। वै। ऊँ इति। अर्थिनः। आ। जाया। युवते। पतिम्। तुञ्जाते इति। वृष्ण्यम्। पयः। परिऽदाय। रसम्। दुहे। वित्तम्। मे। अस्य। रोदसी इति ॥ १.१०५.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 105; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    यथार्थिनोऽर्थवै पतिंजायेव आयुवते यथा राजप्रजे यद् वृष्ण्यं पयो रसमित् परिदाय दुःखानि तुञ्जाते तथा तच्चाहमपि दुहे। अन्यत् पूर्ववत् ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (अर्थम्) य ऋच्छति प्राप्नोति तम् (इत्) अपि (वै) खलु (उ) वितर्के (अर्थिनः) प्रशस्तोऽर्थः प्रयोजनं येषान्ते (आ) (जाया) स्त्रीव (युवते) युनते बध्नन्ति। अत्र विकरणव्यत्ययेन शः। (पतिम्) स्वामिनम् (तुञ्जाते) दुःखानि हिंस्तः। व्यत्ययेनात्रात्मनेपदम्। (वृष्ण्यम्) वृषसु साधुम् (पयः) अन्नम्। पय इत्यन्नना०। निघं० २। ३। (परिदाय) सर्वतो दत्वा (रसम्) स्वादिष्ठमोषध्यादिभ्यो निष्पन्नं सारम् (दुहे) वर्धयेयम् (वित्तं, मे०) इति पूर्ववत् ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा स्त्रीष्टं पतिं प्राप्य पुरुषश्चेष्टां स्त्रियं वाऽऽनन्दयतस्तथाऽर्थसाधनतत्परा विद्युत्पृथिवीसूर्यप्रकाशविद्यां गृहीत्वा पदार्थान् प्राप्य सदा सुखयति नह्येतद्विद्याविदां सङ्गेन विनैषा विद्या भवितुमर्हति दुःखविनाशश्च संभवति। तस्मादेषा सर्वैः प्रयत्नेन स्वीकार्य्या ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे राजा और प्रजा कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जैसे (अर्थिनः) प्रशंसित प्रयोजनवाले जन (अर्थम्) जो प्राप्त होता है उसको (वै) ही (पतिम्) पति का (जाया) सम्बन्ध करनेवाली स्त्री के समान (आ, युवते) अच्छे प्रकार सम्बन्ध करते हैं (उ) या तो जैसे राजा-प्रजा जिस (वृष्ण्यम्) श्रेष्ठों में उत्तम (पयः) अन्न (इत्) और (रसम्) स्वादिष्ठ ओषधियों से निकाले रस को (परिदाय) सब ओर से देके दुःखों को (तुञ्जाते) दूर करते है वैसे उस-उस को मैं भी (दुहे) बढ़ाऊँ। शेष अर्थ प्रथम मन्त्र में कहे के समान जानना चाहिये ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे स्त्री अपनी इच्छा के अनुकूल पति को वा पति अपनी इच्छा के अनुकूल स्त्री को पाकर परस्पर आनन्दित करते हैं वैसे प्रयोजन सिद्ध कराने में तत्पर बिजुली, पृथिवी और सूर्य प्रकाश की विद्या के ग्रहण से पदार्थों को प्राप्त होकर सदा सुख देती है, इसकी विद्या को जाननेवालों के सङ्ग के विना यह विद्या होने को कठिन है और दुःख का भी विनाश अच्छी प्रकार नहीं होता, इससे सबको चाहिये कि इस विद्या को यत्न से लेवें ॥ २ ॥

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    विषय

    जीव जाया है , प्रभु ‘पति’ है

    पदार्थ

    १. प्रभु कहते हैं कि (रोदसी) = द्युलोक व पृथिवीलोक , अर्थात् सारा ब्रह्माण्ड (मे अस्य वित्तम्) = मेरी इस बात को अच्छी प्रकार समझ ले कि (अर्थिनः) = अर्थ की कामनावाले (इत् वा उ) = निश्चय से (अर्थम्) = अर्थ को (आयुवते) = सर्वथा अपने साथ जोड़ते हैं । यह एक सामान्य नियम है कि हम एक वस्तु की कामना करते हैं तो उसे प्राप्त करते ही हैं । कामना ही न हो तो प्राप्त क्या करना ? मोक्षसाधनों में ‘मुमुक्षुत्व’ का उल्लेख इसी बात का संकेत करता है । व्यासजी कहते हैं कि “यो यदर्थं कामयते यदर्थं घटतेऽपि च । अवश्यं तदवाप्नोति न चेच्छ्रान्तो निवर्तते” - जो जिसकी कामना करता है और जिसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है , वह अवश्य उसे प्राप्त करता है , यदि ऊबकर बीच में ही प्रयत्न को छोड़ नहीं देता । मनुष्य के चार पुरुषार्थ हैं - धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष । ये प्राप्त तभी होते हैं जबकि इनकी प्राप्ति के लिए प्रबल कामना हो और वह कामना प्रयत्न के रूप में प्रकट हो । प्रभु - प्राप्तिरूप अर्थ के हम अर्थी होंगे तो प्रभु को क्यों न प्राप्त करेंगे ? 

    २. (जाया) = पत्नी (पतिम्) = पति को (आयुवते) = प्राप्त करती ही है । जीवात्मा ‘जाया’ है , वह प्रभुरूप पति को प्राप्त करने की कामनावाला होता है तो उसे पाता ही है । 

    ३. इस प्रकार जीवरूप जाया जब प्रभुरूप पति को प्राप्त करती है तब (पयः) = आप्यायन व वर्धन करनेवाले (वृष्ण्यम्) = वीर्य को (तुञ्जाते) = अपने में प्रेरित करता है । प्रभु की शक्ति जीव को प्राप्त होती है । पत्नी के रूप में उपासक बनने पर उसे पति की शक्ति क्यों न प्राप्त होगी ? 

    ४. वस्तुतः यह जीव (रसम्) = [रसो वै सः - तै०] उस रसरूप प्रभु को (परिदाय) = सब प्रकार से प्राप्त करके (दुहे) = अपना पूरण करता है । प्रभु - प्राप्ति से न्यूनताएँ दूर होती हैं , इनके दूर होने से उत्कृष्ट आनन्द की प्राप्ति होती है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु - प्राप्ति ही हमारा पुरुषार्थ हो । जायारूप जीव को प्रभुरूप पति की कामना हो । प्रभु की शक्ति से हम शक्तिसम्पन्न बनें । उस रसरूप प्रभु को प्राप्त करके अपना पूरण करें । 
     

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    विषय

    वृष्टि जल के आदान प्रतिदान में सूर्य पृथिवी के दृष्टान्त से स्त्री पुरुष और प्रजा राजा के कर्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( अर्थिनः ) धन के अभिलाषी जन ( अर्थम् इत् उ ) धन को ( आयुवते ) प्राप्त होते हैं ( वा उ ) उसी प्रकार ( जाया ) स्त्री, पत्नी ( पतिम् ) पति को ( आ युवते ) प्राप्त होकर प्रसन्न होती है । स्त्री पुरुष दोनों मिल कर जिस प्रकार ( वृष्ण्यं पयः ) निषेक करने योग्य पुष्टिकारक धातु, वीर्य का ( तुञ्जाते ) एक दूसरे को प्रदान करते और लेते हैं उसी प्रकार धन और धनाभिलाषी दोनों भी ( वृष्ण्यं पयः ) सुखवर्षक, पुष्टिकारक अन्नादि लेते और देते हैं । धन ही अन्नादि देता है और अर्थी धन द्वारा ही लेता है। इसी प्रकार पृथ्वी और सूर्य, राजा और प्रजा भी मिल कर ( वृष्ण्यं पयः तुञ्जाते ) वर्षण योग्य जल तथा बलवान् पुरुषों के योग्य बल वीर्य का परस्पर आदान प्रदान करते और जिस प्रकार भूमि सूर्य से प्रकाश ( परिदाय ) लेकर उसको अपना ( रसं दुहे ) जल प्रदान करती है । और स्त्री जिस प्रकार आश्रय, वस्त्र अन्न और हृदय प्रेम आदि लेकर पति को ( रसं दुहे ) अति सुख प्रदान करती है और गौ जिस प्रकार ( परिदाय ) घास आदि खाकर ( रसं दुहे) क्षीर दोहन करती है उसी प्रकार प्रजा या भूमि भी, ( परिदाय ) राजा के बल पराक्रम को लेकर बाद ( रसं दुहे ) सारमय बहुमूल्य ऐश्वर्य प्रदान करती है । हे ( रोदसी ) सूर्य और पृथिवी के समान स्त्री पुरुषो, राजा और प्रजाओ ! गुरु शिष्यो ! तुम दोनों ( मे ) मेरे (अस्य) इस प्रकार के कथन का सत्य रहस्य ( वित्तम् ) जानो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-९ आप्त्यस्त्रित ऋषिः आंङ्गिरसः कुत्सा वा ॥ विश्वे देवा देवता ॥ छन्दः- १, २,१६, १७ निचृतपङ्क्तिः । ३, ४, ६, ९, १५, १८ विराट्पंक्तिः। ८, १० स्वराट् पंक्तिः । ११, १४ पंक्तिः । ५ निचृद्बृहती। ७ भुरिग्बृहती । १३ महाबृहती । १६ निचृत्त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी स्त्री आपल्या इच्छेच्या अनुकूल पतीला किंवा पती आपल्या इच्छेच्या अनुकूल स्त्रीला प्राप्त करून परस्परांना आनंदित करतात तसे प्रयोजन सिद्ध करविण्यासाठी तत्पर असलेली विद्युत, पृथ्वी व सूर्यप्रकाश यांची विद्या ग्रहण करून पदार्थ प्राप्ती होते व सदैव सुखकारी असते. ही विद्या जाणणाऱ्याशिवाय येणे अवघड आहे; व दुःखाचा विनाशही होत नाही. त्यासाठी सर्वांनी ही विद्या प्रयत्नपूर्वक जाणावी ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Those who love things of value get the thing they cherish just as a wife fascinates her husband she loves. They vitalise the fluent waters of life, distil the soma of ecstasy and giving themselves up to the spirit of life, taste the nectar of existence. O heaven and earth, know the secret of this mystery of love and life and reveal it for me.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Those who seek for wealth, obtain it, a wife enjoys the presence of her husband. The rulers and their subjects having taken nourishing good food and the various vitalizing herbs get rid of various maladies, in the essence of same way, I should also do and make others grow.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (तुंजाते) दुःखानि हिसतः | व्यत्ययेनात्रात्मनेपदम् = Destroy misery. (पय:) अन्नम् पय इत्यन्न नाम (निघ० २. ७) (रसम्) स्वादिष्ठम् ओषध्यादिभ्यो निष्पन्नं सारम् || = The delicious essence of the various nourishing herbs.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As a wife enjoys happiness having got a suitable dear husband and a husband is glad to receive a beloved wife, in the same manner, electricity which accomplishes various purposes always causes happiness to the person who acquires the knowledge of electricity, earth and the light of the sun and utilizes it properly. None can acquire this knowledge without the association of the knowers of this Science; none can also destroy misery without it, therefore all should acquire such knowledge with great Laboure.

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